गुफ्तगू
हाशिए न इन लबो को
रोक कर ये इल्तेज़ा करे,
की शाम का कर इशारा
कल फिर मिलेंगे यूं कहे ।
इन लटों की उंगलियों में
उलझ पड़े इस कदर,
प्रीत डोर का जोर यूं
खींच कर मगरूर करे।।
आशियां बने इन आखों में
ज़ुल्फो के घने छांव से,
तेरे सांसों के खुस्बुओ में
शामिल हर शाम करे ।
नरमी सी छुअन तेरी
करे गुफ्तगू बिन कुछ कहे,
होठों की छुअन मुझे
करे आगोश में बाहों के तेरे ।।
अब होना चाहूं कैद मै
बाहों के बंदिश में तेरे ,
घुलना है बेपरवाह यूं
बूंद बूंद सांसों के दरमियाँ ।
अब लिपट यू शाम फिर
बाजुओं में सिमट पड़े,
इंतज़ार किसी खास का
एक बार निगाहें फिर करे ।।
हाशिए इन लबों से
रोककर इल्तेज़ा करे,
फिर शाम चांदनी कोई
रात की गुफ्तगू करे ।।