हे राम लांक्षन तुम पर है
हे राम क्यों विस्मय में हो
क्यों न्याय ना तुम कर रहे
वनगमन, दशरथ मरण, सीता हरण
से भी कठिन है
अग्निपरीक्षा, यम की इच्छा, अश्व दीक्षा
से दुःसह है।
तेरे रामराज्य में तेरी प्रजा ही गौण है
सब भक्त,सेवक थक चुके, सुनता ही उनकी कौन है
अब प्रतीक्षा तू बता हे राम हम कैसे करें
जब जगत के न्यायाधीश पर, जगत का न्याय मौन है।
जो तीर तेरा चीर सकता है, तना ताडों के भी
जो निगल सकता है अमृत नाभि की, सागर को भी
क्यों कुंद है वो न्याय और शर
इस तुच्छ राजनीति पर
हे राम, तुझ पर अब है लांक्षन
तेरी जग की प्रीति पर।