कोख में बेटी  APOORVA SINGH

कोख में बेटी

APOORVA SINGH

मैं बेटी हूँ
कोख में लेटी हूँ,
नौ माह का अंतराल
इसी इंतज़ार में बैठी हूँ।
 

अंग मेरा सब बन चला
मन मेरा है मनचला,
दिल जो मेरा नन्हा सा
बस अब उड़ान भर चला।
 

माँ की प्यारी बनूँगी
पापा की दुलारी बनूँगी,
जीत के दिल हर एक का
परिवार की फुलवारी बनूँगी।
 

जब होगा जन्म मेरा
होगा एक नया सवेरा,
पाँव पड़ेंगे ना ज़मीन पे किसी के
घर बनेगा खुशियों का डेरा।
 

सब मुझे खिलाएँगे
दूध पे दूध पिलाएँगे,
लेने को मुझे गोद में
एक दूजे से लड़ जाएँगे।
 

बोलना मुझे सिखाएँगे
लाड मुझे लडाएँगे,
गिरूँगी जब पल-पल में
चलना मुझे सिखाएँगे।
 

मैं भी ज़रा इतराऊँगी
थोड़ा भाव भी खाऊँगी,
जो ना मनाया किसी ने और
तो झट से मान जाऊँगी।
 

अपनी गुड़िया संग खेलूँगी
सखी संग झूला झूलूँगी,
जो आया मौसम बारिश का
बूंद-बूंद को जोड़ूँगी।
 

पढूँगी लिखूँगी
कुछ काम करूँगी,
जग में रह कर
कुछ नाम करूँगी।
 

देखें जो सपने माँ पापा ने
हर एक साकार करूँगी,
मैं तो एक परिंदा हूँ
इस जहाँ की बाशिंदा हूँ,
साँसें तो पूरी नहीं पड़ती
माँ के खून से ज़िंदा हूँ।
 

पर आज
ना जाने क्यों सब उदास हैं,
किस खबर से यूँ हताश हैं ?
कर सकती हूँ महसूस उस पीर को
जिससे माँ बहुत निराश है।
 

अब माँ की आँखों से देख सकती हूँ,
जा रहा कहा वो सुन सकती हूँ,
ना कर पाऊँ दखल भले
पर फितरतों को समझ सकती हूँ।
 

मैं देख पा रही हूँ
जो रहा हो वो समझ पा रही हूँ,
मेरी वजह से दुख समाया है
माँ की आँखों में आँसू हैं।
 

क्यों बेटा नहीं बेटी पाया है
माँ मुझे मारना चाहती है,
जो खिला नहीं फूल वो तोड़ना चाहती है,
मेरी उंगली पकड़ने से पहले ही
उस छोड़ना चाहती है।
 

माँ मुझे मौत ना देना
मैं जीना चाहती हूँ,
चोट ना देना
तेरे आँचल में छिपना चाहती हूँ।
 

टुकड़ों में यूँ काट ना देना
तेरी गोद में सोना चाहती हूँ,
जानवरों में फिर बाँट ना देना
ना पत्थर हूँ ना बेजान हूँ,
हूँ बेटी तो क्या इंसान हूँ।
 

बेटों से ज्यादा बेटियाँ शरीफ होती हैं
नहीं हूँ बेटा तो क्या मुझे भी तकलीफ होती है,
अंग मेरा काट रहे हैं
मुझे दर्द हो रहा है,
बचाले तू माँ
मुझे कष्ट हो रहा है।
 

तू जो कहेगी वो करुँगी
तेरे लिए जियूँगी तेरे लिए मरूँगी,
ना मार मुझे यूँ तड़पा-तड़पा के
हर आरज़ू पूरी करुँगी।
 

एक मौका तो देती माँ
छू दिखाती मैं आसमां,
कैसे मुझसे पीछा छुड़ा लिया
पैदा होने से पहले जीवन मिटा दिया।
 

तेरे लिए अग्नि से खेल जाती
दर्द तुझे छूने से पहले मैं खुद झेल जाती,
जो ना कर पाता बेटा वो कर दिखाती
अगर थी इतनी ही ख्वाहिश तो बेटा भी बन जाती।
 

मिटा दिया तूने बदन तो क्या
ये चेतना अब भी जीवित है,
छीन लिया ये जहाँ तो क्या
अस्तित्व अब भी जीवित है।
 

जो उड़े खुले आकाश में
उस आकाश की चिरैया हूँ,
जो दिखे कहीं किसी डाल पे
उस डाल को गौरैया हूँ,
जो ना हो शिकस्त
वो तैरती नैया हूँ।
 

मैं ही बावली थी
समझ खुद को गुलशन में
काँटों में जी रही थी,
ना पूरे हो सकने वाले
ख्वाब देख रही थी।
 

खैर
मैं तो एक चेतना हूँ
स्वतंत्र परिंदा हूँ,
इस दुनिया की बाशिंदा हूँ।
 

फिर से उड़ान भरूँगी
वही ख्वाब सँजोए,
एक कोख की तलाश में
फिर एक माँ की तलाश में
लाड की तलाश में
दुलार की तलाश में।

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