कर्तव्य  APOORVA SINGH

कर्तव्य

APOORVA SINGH

कभी-कभी सोचती हूँ
ऊपर बैठा वो खुदा
सब देखता होगा,
चढ़ रहा कैसे परवान कलयुग
ये भी सोचता होगा,
अग्रसर होता मनुष्य पशुता की ओर
और हो जाएँ सारे भेद खत्म
कर दूँ क्या अंत इस युग का
जरूर विचारता होगा।
 

बंधन का अब कोई जोर ना रहा
हर बात पे टूटते देखा है,
बनी है हर एक रिश्ते की मर्यादा
मर्यादा तोड़ मैंने जुर्रत बढ़ते देखा है।
बेटे के सुख के लिए
बाप खुद की इच्छाएँ मार देता है,
देवता सा मुख लिए
वो अपनी ज़िन्दगी वार देता है।
कैसे करूँ यकीन साहब
इन बुढ़ापे की लाठियों पे,
मैंने पिता की चिता पे मुस्काती औलाद को
धर्म के लिए लड़ते देखा है।
 

जिनका है सूरज उगता
ईश्वर की आराधना से,
कि उसे पाने की है कोशिश
पूजा से और साधना से,
घंटी शंख बजा के तुम
उस खुदा को जगाते हो,
बिना मुँह में डाले खुद कुछ
उसे तुम भोग लगाते हो।
उसी घर में मिट्टी की मूरत को
नित पकवान चढ़ते देखा है,
हाँ मैंने मुरझाई वृद्ध माँ को
भूख से तड़पते देखा है।
 

कर लो आराधना श्री राम की
या इबादत अल्लाह की,
जो गया भूल अपने धर्म को
उसे मुक्ति के लिए तरसते देखा है।
यहाँ धर्म हिन्दू मुस्लिम नहीं
ये है कर्तव्य उस रब से मिला,
जो गया चूक इसे निभाने में
मैंने ताउम्र उसे बिलखते देखा है।

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