प्रवासी मजदूर : हमारा ही अंश  KUMAR SAURABH PRAVEEN

प्रवासी मजदूर : हमारा ही अंश

KUMAR SAURABH PRAVEEN

ये जो दर-दर यूँ ही भटक रहे हैं
इनके आँसू क्यों टपक रहे हैं,
माँगेगा जवाब समय भी एक दिन
जो मानवता को कलंकित कर रहे हैं।
 

सृजनकर्ता हैं वो उन पक्की गलियों के
जो खुद ही कच्चे रह गए हैं,
दो-जून रोटी की खातिर आज
हमसे दूर, बहुत दूर बिछड़ गए हैं।
 

न ही कोई गलती उनकी, न कोई कुसूर है,
बेपरवाह हैं जिम्मेवार लोग, वो तो बस मजबूर है,
इस समय ने पासा जो पलट दिया है,
हमारी सभ्यता को भी कलंकित कर दिया है।
 

गरीब तो मन से सब हो रहे हैं,
अन्यथा क्यों ये घड़ियाली आँसू रो रहे हैं,
उठो न सचमुच ये परिवार हमारे हैं,
ये हमसे दूर, बहुत दूर हो रहे हैं।
 

फिर भविष्य को तुम मत कोसना,
उनके बिना जीने की आदत डाल लेना,
परन्तु संभव नहीं, सबकुछ यूँ खुद से संभाल लेना,
संकटों के यूँ करीब जाना, और अपने को पाल लेना।
 

वो हमारी ज़िंदगी को आसान कर गए हैं,
थोड़ा नहीं बहुत बड़ा अहसान कर गए हैं,
थोड़ी मुस्कुराहट ला दो तुम उनके भी लबों पर,
वो नेक हैं, इंसानियत का बड़ा काम कर गए हैं।

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