एक खिड़की Yogendra Singh Chauhan
एक खिड़की
Yogendra Singh Chauhanआज गली में चलते-चलते
सुस्ताते घरों को मैंने देखा,
देखा कब से यूँही ताक रहे थे मुझको,
मैंने भी अपना चश्मा ठीक किया
और आँख उठा कर फिर देखा,
देखा वही भट्ठे की ईंटें, मिट्टी और सीमेंट,
वही दरवाजे, खिड़कियाँ और दीवारें,
सब अलग, मगर एक से,
वही खुशियाँ, वही दुख,
वही रोना, हँसना और मनाना,
यह सब बातें करते हैं,
राहगीरों को तकते रहते हैं।
कहीं एक खिड़की खुली,
एक परछाई ने हाथ हिलाया,
आवाज़ लगाई, सामने शायद
एक रूठी खिड़की को बुला रही थी।
मैं खड़ा देखता रहा,
सोचता रहा शायद वो सुन सके,
जी में आया एक कंकड़ मार उसे उठाऊँ,
याद कराऊँ कि वो खुली खिड़की बुलाती है,
लेकिन मैं तो राही हूँ,
कितने देर रुक पाऊँगा।
कितनी खिड़कियाँ जो बंद हो जाती हैं,
कितनों को खुलवा पाऊँगा,
शायद वह सो गई होगी याभूल गई होगी
कि आज उसे खुलना था,
अपना नित्य कार्य करना था,
लेकिन वो नहीं खुली,
जब तक था वो नहीं हिली,
मैं तो राही था, चल दिया,
अब नहीं देखूँगा, पहले के जैसे
अब नहीं सोचूँगा।