गहराई Yogendra Singh Chauhan
गहराई
Yogendra Singh Chauhanलम्हों के गुच्छों से
पल उठा के देखे,
पाया तो अनगिनत मोती
जीवन-सूत्र मे पिरोए मिले।
जीने की आपा-धापी में
कितने मोती छूट गए,
जो रह गए रंग-बिरंगे
कितने दिन बाद दिखे।
हर एक मोती कितना प्यारा
के संसार छुपा रखा था,
स्मृतियों की झीलों में
घर-बार बसा रखा था।
एक तुम्हारी छवि का
मोती मिला छुपा सा,
नयनों से रुके न नीर
हृदय मे रुका न अम्बर।
रुँधे हुए से वर्णों का
भेद अचानक खुल गया,
दबी हुई साँसों का
तूफ़ान अचानक गुज़र गया।
अपनी वो हँसी-ठिठोली
गूँजी जब भी झीलों में,
माथे पर भँवर पड़े
विचलित हुआ हिलोरों में।
एक चन्द्र, एक तुम्हारा मुख,
देखा था परछाई में,
एक चंचलता, एक तुम्हारी काया,
सजी हुई तरुणाई में।
सावन न जाने कितने बीते
साथ तुम्हारे,
फिर भी बेघर रह गया
झीलों की गहराई में।