पुराना घर  Harshita Singh

पुराना घर

Harshita Singh

लकड़ी का दरवाजा था
नीचे से चिटका थोड़ा,
काई से ढका रहता था
बारिश के मौसम में।
 

एक लता थी
गुलाबी बोगनविलिया की,
जिसके फूल फैले रहते थे
दरीचे और गालियारे में।
 

मोरपँखी का पौधा था,
किताबों में तोड़कर
रखी उसकी पत्तियाँ
हरी से पीली हो गईं सारी।
 

एक अमरुद था बड़ा घना,
भूरी रंग की मोटी चिड़िया
करकश आवाज़ से चिढ़ाती थी,
सारे फल जूठे कर जाती थी।
 

इन सब पेड़ों में फँसी
थी एक नीली मोटी रस्सी,
जिसपर फ़ैल कर सूखते थे
कभी शर्ट कभी कुर्ते अनारकली।
 

गुसालखाने का दरवाजा
टिन का था सफ़ेद,
और एक काली लोहे की कढ़ाई में
भीगती थी आमला शिकाकाई।
 

रसोईघर महकता था
रोज़ पकवानों से,
और हथेली पे रख चाटते थे
मथानी पर चिपका ताजा मक्खन।
 

लोहे की एक खिड़की थी पुरानी
जो जोड़ती थी पड़ोसी से,
आवाज़ आर-पार जाती थी
और कभी-कभी सामान भी।
 

एक पुराना कूलर था
जो दो कमरों को करता था ठंडा,
सोंधी मिट्टी की खुशबू उफ़
और तेज गति से चलता पंखा।
 

ऐसा लगता है मानो मैं हूँ
पुराना बरगद, जो फ़ैल गया है
उस घर के हर कोने में
सब कुछ समेटे अपने भीतर।
 

वो घर जो अब है या नहीं
फ़र्क़ नहीं पड़ता,
यादों का पता वही है अभी
और आगे भी रहेगा।

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