अब कहाँ वह बचपन suman sabhajeet yadav
अब कहाँ वह बचपन
suman sabhajeet yadavअब कहाँ वह दिन रहे,
अब कहाँ वह रात है।
अनोखा-सा संसार था
अपनों का ढेर प्यार था,
खुशियाँ बेशुमार थीं
मासूमियत सवार थी।
सपनों की बहती थी कश्ती
बचपन की थी वह बस्ती,
नटखट सा अंदाज़ था
चहक-महक सा साज था।
खेलने के फेर में
न भूख थी, न प्यास थी,
सवालों के ढेर थे
पर कोई बैर न था।
भोली-सी शैतानियाँ
अल्हड़-सी नादानियाँ,
कहानियों के ढेर थे
साथ थी शाबाशियाँ।
ना ही परेशानियाँ
ना ही जिम्मेदारियाँ,
दोस्त, सखी साथ थे
पास था सारा जहाँ।
झूमने को झूम लूँ
और खुशी से चूम लूँ,
वो पल वो रंग प्यार के
वो अपनेपन के एहसास को।
पर ज़िन्दगी एक सत्य है
समय का कालचक्र है,
ना थमे, ना रुके,
सतत निरंतर ही चले।
संघर्ष के मैदान में
युद्ध क्षेत्र संसार में,
तमाम है व्याधियाँ
बवंडर सी हैरानियाँ।
सीख बचपन से लिए
ना डरे, ना थमे,
बेफिक्र दृढ हो चले
दौड़ती रफ़्तार में।
अब वह दिन ढल गए
और मनोरम शाम है,
एक नई शुरुआत है
एक नई आस है।