नज़रिया  Anupama Ravindra Singh Thakur

नज़रिया

हमारी ज़िन्दगी में नज़रिया बहुत ज्यादा मायने रखता है। अगर हमारी सोच अक्सर सकारात्मक होती है तो हमारा नजरिया सकारात्मक होता है।

नेहा का मूड आज काफी उखड़ा-उखड़ा था, बात-बात पर वह बच्चों को डाँट रही थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि नई प्रिंसिपल मैम को उससे क्या परेशानी है, वह कभी उससे हँसकर बात ही नहीं करते। सुबह अभिवादन करने पर भी कोई जवाब नहीं देते। वह मन ही मन पुटपुटाने लगी, "20 वर्षों से पढ़ा रही हूँ, कभी किसी ने कुछ नहीं कहा, पर ना जाने ये मैंम क्यों मुझसे खुश नहीं है? बाकी सब की प्रशंसा करते हैं, सिवाय मेरे।" नेहा के मन में नई आई प्रिंसिपल ईशा टंडन के प्रति नकारात्मकता बढ़ती ही जा रही थी। ईशा टंडन इसी वर्ष प्रिंसिपल के रूप में नियुक्त हुई थी। जब नेहा ने उन्हें पहली बार देखा तो वह उनसे बहुत प्रभावित हुई थी। ईशा टंडन की हर बात दूसरों से कुछ अलग थी, उनके साड़ी पहनने का ढंग बेहद कलात्मक एवं सादगी भरा था। उनका बहुत ही सावधानी पूर्वक पूरे शरीर को ढकना, कलाई एवं पेट तक लंबा ब्लाउज पहनना, हल्के रंग परंतु सिल्क की महंगी साड़ी पहनना, नाक में बड़ी सी नथनी, कानों में चार-चार छेद तथा प्रत्येक छेद में रत्न से जड़ा आभूषण पहने हुए, हर पल कंधे पर पल्लो रखना और हमेशा चाहे खुशी हो या गम उर्जा से भरी ऊँची पहाड़ी आवाज में बात करना, उन्हें समान्य लोगों अलग करता था। सबसे निराली और आश्चर्यजनक बात तो यह थी कि वे दिवस भर अन्न ग्रहण नहीं करते। केवल गरम पानी या चाय पर गुजारा करके केवल रात का भोजन ग्रहण करते। नेहा को विश्वास ही नहीं होता था कि वह किसी मनुष्य से मिल रही है। नेहा उनसे बहुत प्रभावित थी। उनकी सबसे हैरान करने वाली बात तो यह थी कि ईशा टंडन केवल 30 वर्ष की आयु में प्रधानाध्यापिका बनी थी। नेहा उन्हें देखकर बहुत खुश होती, बार-बार सोचती कि ईशा टंडन मैडम इतनी छोटी उम्र में प्रिंसिपल कैसे बन गए होंगे ? इतनी समझदारी उनमें कैसे आ गई होगी? पाठशाला चलाना कोई मजाक तो नहीं है। नए-नए से नेहा को उनकी हर चीज बहुत पसंद आती। उनको वह हर दिन देखने की कोशिश करती और मन ही मन उन्हे सराहती परंतु धीरे-धीरे नेहा के मन में यह बात घर करने लगी थी कि प्रिंसिपल ईशा टंडन उसे बिलकुल पसंद नहीं करती है। धीरे-धीरे उसके मन में घृणा एवं तिरस्कार के भाव निर्माण होने लगे। अगर प्रिंसिपल किसी की भी प्रशंसा करती तो नेहा को बिल्कुल सहन नहीं होता। वह प्रिंसिपल को अब पक्षपती कह कर बुलाने लगी थी।

उसी पाठशाला में दसवी में पढ़ रही नेहा के बेटी को प्रिंसिपल का स्वभाव बहुत ही पसंद आता। वह घर आकर भी उनकी स्तुति करती तो नेहा और भी चढ़ने लगती। नफरत और प्यार के इस खेल में 1 वर्ष कब बीत गया पता ही नहीं चला। नेहा की बेटी इस वर्ष कॉलेज जाने लगी थी। नेहा ने उसे अपने से दूर मुंबई में रखा ताकि वह खूब मन लगाकर पढ़ सके परंतु वहाँ की लड़कियों के साथ रहकर वर्षा का व्यवहार बिगड़ने लगा था। दिन ब दिन उसके पढ़ाई का स्तर गिर रहा था। नेहा ने तुरंत उसे वापस लाने का निर्णय लिया। उसने यह बात किसी को भी नहीं बताई। लोग बिना कारण तरह-तरह की बातें करते हैं। वह और उसके पति एक दिवस की छुट्टी निकाल कर तुरंत मुंबई निकल पड़े और उसे लेकर आ गए। परंतु चंचल मन की वर्षा फिर से अपने दोस्तों के साथ रहना चाहती थी। वह मानसिक तौर पर बहुत ही विचलित थी। वर्षा बार-बार रोती और हॉस्टल जाने की जिद्द करती। नेहा भी अब परेशान रहने लगी थी। वह बार-बार ईश्वर से मिन्नतें करती कि उसकी बेटी को सद्बुद्धि दे। जैसे ही नेहा शाम में घर लौटती, वर्षा का रोना और हॉस्टल जाने की जिद्द करना प्रारंभ होता। इधर वह पाठशाला में प्रिंसिपल के व्यवहार से नाराज थी। उसे प्रिंसिपल ने कभी भी प्रत्यक्ष रूप से डाँटा नहीं था परंतु उसकी प्रशंसा भी नहीं की थी। अत: वह मन ही मन कुढ़ती जा रही थी।

वर्षा की समस्या किसे बताए यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था, तभी उसे याद आया कि वर्षा प्रिंसिपल टंडन को बहुत पसंद करती है, उनकी हर बात मानती है। अगर वे समझाएँगी तो शायद वह समझ जाएगी। परंतु फिर नेहा के मन में नकारात्मक विचार आए कि प्रिंसिपल कभी भी उसकी मदद नहीं करेंगी इसलिए उसने इस विचार को त्याग दिया। उस शाम घर लौटने पर वर्षा ने फिर से रोकर हॉस्टेल लौटने की जिद्द शुरू की। वर्षा बार-बार कह रही थी, "दसवीं तक तो उसका कोई दोस्त नहीं था, अब उसे दोस्त मिले हैं तो वहाँ भी पढ़ने नहीं दे रहे हैं।" वर्षा के एकाकीपन को नेहा भी अच्छी तरह जानती थी। दसवी तक उसे कक्षा में किसी ने नहीं अपनाया था। कारण पता नहीं क्या था। टीचर की बेटी होने से, या फिर मध्यम वर्गीय परिवार की होने के कारण। पता नहीं क्या था परंतु उस दिन वर्षा की बातें सुन वह भी खूब रोई। अगले दिन उसने सोच लिया कि प्रिंसिपल को बात करने में क्या हर्ज है, नहीं की तो नहीं की मदद। कोशिश करने में हर्ज ही क्या है। यह सोच नेहा ने प्रिंसिपल टंडन को फोन लगाया और मिलने के लिए समय माँगा। पहले तो काम में व्यस्त होने के कारण प्रिंसिपल ने मना कर दिया । अब नेहा के मन में फिर से उनके लिए नकारात्मक भाव जाग गए। पर उसने फिर से प्रयास करने का निर्णय लिया। उसने दोबारा फोन लगाया और कहा, मैंम मुझे थोड़ा सा वक्त चाहिए, पर्सनल बात करनी है।" तब प्रिंसिपल ने उसे 11:30 बजे बुलाया। नेहा बेसब्री से 11:30 की प्रतीक्षा करने लगी। जैसी ही वह टंडन मैडम के कार्यालय में पहुँची उसके आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। वह बहुत भावुक होकर अपनी बेटी की समस्या टंडन मैडम को बताने लगी। प्रिंसिपल टंडन भी बहुत शांत होकर नेहा के हर बात को ध्यान से सुनने लगी। नेहा ने पूछा, " क्या आप मेरी कुछ मदद कर सकती हैं? " नेहा मन ही मन सोच रही थी कि प्रिंसिपल टंडन उसे मना कर देंगी परंतु प्रिंसिपल मैडम ने कहा कि वह उसके घर आकर वर्षा को समझाएगी। यह सुन नेहा के होश उड़ गए। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह वही स्त्री है, जो जल्दी उसका अभिवादन भी स्वीकार नहीं करती। किसी की शादी समारोह में नहीं जाती, किसी के घर का कुछ नहीं खाती। साधारण से अध्यापक के घर आने की बात कह रही है । नेहा समझ गई कि प्रिंसिपल ने उसे टालने के लिए ऐसा कहा है। उसने केवल जी हाँ कहा और वह कार्यालय से निकल गई। नेहा ने अब सारी उम्मीदें छोड़ दी और अपने काम में व्यस्त हो गई। तभी 2:30 बजे पाठशाला के चपरासी ने आकर संदेश दिया कि प्रिंसिपल ने आपको फोन करने के लिए कहा है। नेहा ने डरते-डरते फोन किया, तो प्रिंसिपल ईशा ने कहा, "नेहा आज 3:00 बजे आपके घर चलते हैं।" नेहा के मुँह से आश्चर्य और घबराहट के मारे केवल "जी मैम।" निकला "3:00 बजे तैयार रहना।" नेहा बिल्कुल स्तब्ध थी, काटो तो खून नहीं। 3:00 बजने में केवल आधा घंटा ही शेष था। उसने फटाफट अपना सारा काम निपटाया और एडमिन में आ गई। चपरासी हाथ में बाहर निकलने की 'अनुमति-चिट्ठी ' लिए खड़ा था। उसने कहा प्रिंसिपल मैडम गेट के बाहर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। नेहा ने झट से हस्ताक्षर किये और अपनी स्कूटी निकाल कर बाहर निकली। वह आगे -आगे और प्रिंसिपल टंडन की गाड़ी उसके पीछे -पीछे। 2 मिनट में घर आ गया। नेहा के विचार जैसे थम गए थे। उसका मस्तिष्क जैसे सुन्न हो गया था। उसमे किसी भी प्रकार के नए विचार नहीं आ रहे थे। घर आते ही स्कूटी से उतरकर वह टंडन मैडम के स्वागत के लिए खड़ी हो गई। उसने वर्षा से कहा, "मैम खास तुम्हारे लिए यहाँ आए हैं।" उन्होंने वर्षा को गले लगाया और बहुत देर तक उससे बातें की। उसे समझाया, "बेटा, जहाँ अपनी तरक्की ना हो रही हो वहाँ नहीं जाना चाहिए। पढ़ाई ही सब कुछ है, तुम्हें बहुत बड़ी इंसान बनना है और तुम्हारी पहली तनख्वाह से मुझे एक साड़ी चाहिए।" वर्षा अपने प्रिंसिपल मैम की बातें सुनकर गदगद हो गई। उसकी आँखों में आँसू आ गए। पता नहीं क्या जादू था उनकी बातों में। वर्षा हर बात मन लगाकर सुन रही थी। जैसे उसे इससे पहले इतना प्यार न मिला हो।

टंडन मैडम कभी कुछ खाती नहीं है किसी का भी नहीं । नेहा ने पहले ही सोच लिया था कि मैम उसके घर पर भी कुछ नहीं खाएँगे। अत: डरते-डरते उसने पूछा, "मैंम आप चाय लेंगे या कॉफी?" प्रिंसिपल टंडन ने कहा चाय लूँगी। नेहा अपनी सोच पर आश्चर्यचकित और शर्मिंदा थी। उस दिन उसे प्रिंसिपल टंडन अधिक साहसी, धीर-गंभीर और परिपक्व विचारों वाली लगी। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उसकी आँखों में आँसू थे। बस वह उनकी ओर देखे जा रही थी और सोच रही थी अपना कीमती काम छोड़कर केवल उसके लिए प्रिंसिपल उसके घर आई है। अब नेहा की सारी नकारात्मकता दूर हो गई थी। उसके हृदय में केवल और केवल श्रद्धा के भाव रह गए थे। प्रिंसिपल की वाणी में न जाने ऐसी क्या दिव्यता एवं जादू था कि वर्षा ने भी उस दिन के बाद कभी हॉस्टल की याद नहीं की। नेहा का हृदय पश्चाताप के आँसुओं से धुल चुका था। सचमुच कभी-कभी हम किसी के बारे में बिना पूरी तरह जाने ही राय कायम कर लेते हैं।

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