संध्या के संग लौट आना तुम  सोम ठाकुर

संध्या के संग लौट आना तुम 

सोम ठाकुर | शृंगार रस | आधुनिक काल

जाओ, पर संध्या के संग लौट आना तुम 
चाँद की किरन निहारते न बीत जाय रात 

कैसे बतलाऊँ इस अंधियारी कुटिया में
कितना सूनापन है 
कैसे समझाऊँ, इन हल्की सी साँसों का
कितना भारी मन है 
कौन सहारा देगा दर्द -दाह में बोलो 
जाओ पर आँसू के संग लौट आना तुम 
याद के चरन पखरते न बीत जाय रात 

हर न सकी मेरे हारे तन की तपन कभी
घन की ठंडी छाया 
काँटों के हार मुझे पहना के चली गई
मधुऋतु वाली माया 
जी न सकेगा जीवन बीधे-बीधे अंगों में 
जाओ पर पतझर के संग लौट आना तुम 
शूल की चुभन दुलारते न बीत जाय रात 

धूल भरे मौसम में बाज न सकेगी कल तक
गीतों पर शहनाई 
दुपहरिया बीत चली, रह न सकेगी कल तक
बालों में कजराई 
देर नही करना तुम गिनी -चुनी घड़ियाँ हैं
जाओ पर सपनों के संग लौट आना तुम 
भीगते नयन उघार्ते न बीत जाय रात 
मेरी डगमग नैया डूबते किनारों से
दुख ने ही बाँधी है 
मेरी आशा वादी नगरी की सीमा पर
आज चड़ी आँधी है 
बह न जाए जीवन का आँचल इन लहरों में 
जाओ, पर पुरवा के संग लौट आना तुम 
सेज की शिकन संवारते न बीत जाय रात

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