दोहे बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'

दोहे

बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' | शृंगार रस | आधुनिक काल

विचरहु पिय की डगरिया, बसहु पिया के गाँव
पिय की ड्यौढ़ी बैठिकै, रटहु पिया कौ नांव।

रात अंधेरे पाख की, दीपक हीन कुटीर
आय संजोवहु दीयरा, हियरा भयौ अधीर।

फूल्यौ यह जीवन विटप, फल्यौ आदि अभिशाप,
संतापी हिय कुर रह्यौ नीरव मौन विलाप।

विहंसी झूला झूल प्रिये, मम रसाल की डाल
कूकौ कोकिल-सी तनिक गूँजे सब दिक्-काल।

काऊ कौं है निमिषवत अंतहीन यह काल
काऊ कौं छिन हू लगत ब्रह्म-दिवस विकराल।

हंसा उड़े अकास में तऊ न छूट्यौ द्वन्द
मन अरुझान्यौ ही रह्यौ मानसरोवर-फंद।

हम बिराग आकास में बहुत उड़े दिन-रैन
पै मन पिय-पग-राग में लिपटि रह्यौ बेचैन।

सरद जुन्हाई अब कहाँ, कहाँ बसंत उछाह
जीवन में अब बचि रह्यौ चिर निद्राध कौ दाह।

नेह दियौ निष्ठा सहित, पायी घृणा अपार
सेवा कौ मेवा मिल्यौ यह कृतघ्न व्यवहार।

हम विषपायी जनम के सहे अबोल-कुबोल
मानत न नैंकुन अनख हम जानत अपनौ मोल।

पंछी बोलत चैं-चटक सलिल करत कलनाद
सब जग ध्वनियम है रह्यौ, हमें मौन-उन्माद।

व्यर्थ भये निष्फल गए जोग साधना यत्न
कौन समेट धूरि जब मन में पिय-सो रत्न।

कहें धूनि की राख यह, कहें पिय चरण पराग
कहाँ बापुरी विरति यह, कहाँ स्नेह रस राग?

अरुणा भई विभावरी ढूँढ़त पिय कौ गाँव
कितै पिया की डगरिया, कितै पिया कौ ठांव?

है या जग की मृत्तिका कछुक सदीस मलीन
जामें मिलि है जात है चेतन चेतन-हीन!

संस्मृति बनी अनूप, बसे रहौ तुम हृदय में
कछु छाया कछु धूप, सरसावहु मन-गगन बिच।

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