सुभाषचन्द्र गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

सुभाषचन्द्र

गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' | वीर रस | आधुनिक काल

तूफान जुल्मों जब्र का सर से गुज़र लिया
कि शक्ति-भक्ति और अमरता का बर लिया ।
खादिम लिया न साथ कोई हमसफर लिया,
परवा न की किसी की हथेली पर सर लिया ।
आया न फिर क़फ़स में चमन से निकल गया ।
दिल में वतन बसा के वतन से निकल गया ।। 

बाहर निकल के देश के घर-घर में बस गया;
जीवट-सा हर जबाने-दिलावर में बस गया ।
ताक़त में दिल की तेग़ से जौर में बस गया;
सेवक में बस गया कभी अफसर में बस गया । 
आजाद हिन्द फौज का वह संगठन किया ।
जादू से अपने क़ाबू में हर एक मन किया ।।

ग़ुर्बत में सारे शाही के सामान मिल गये,
लाखों जवान होने को कुर्बान मिल गये ।
सुग्रीव मिल गये कहीं हनुमान् मिल गये
अंगद का पाँव बन गये मैदान मिल गये '
कलियुग में लाये राम-सा त्राता सुभाषचन्द्र ।
आजाद हिन्द फौज के नेता सुभाषचन्द्र ।।

हालांकि! आप गुम हैं मगर दिल में आप हैं
हर शख़्स की जुबान पै महफिल में आप हैं ।
ईश्वर ही जाने कौन-सी मन्जिल में आप हैं,
मँझधार में हैं या किसी साहिल में आप हैं ।
कहता है कोई, अपनी समस्या में लीन हैं ।
कुछ' कह रहे हैं, आप तपस्या में लीन हैं ।।

आजाद होके पहुँचे हैं सरदार आपके,
शैदा वतन के शेरे-बबर यार आपके,
बन्दे बने हैं काफिरो-दीदार आपके,
गुण गाते देश-देश में अखबार आपके ।।
है इन्तजार आप मिलें, पर खुले हुए ।
आँखों की तरह दिल्ली के हैं दर खुले हुए ।।

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