किसी ने ग़म को कुछ समझा राजेश रेड्डी

किसी ने ग़म को कुछ समझा

राजेश रेड्डी | शांत रस | आधुनिक काल

किसी ने ग़म को कुछ समझा कोई समझा ख़ुशी को कुछ ।
नज़र इक ज़िन्दगी आई किसी को कुछ किसी को कुछ ।

इक आलम बेहिसी का उम्र भर तारी रहा हम पर,
गिना कुछ मौत को हमने न माना ज़िन्दगी को कुछ ।

समुन्दर को मुक़द्दर मानती है हर नदी अपना,
मगर कोई समुन्दर कब समझता है नदी को कुछ ।

तेरी दरियादिली का हमने रक्खा है भरम कायम,
न दे पानी, दुआ ही दे हमारी तिशनगी को कुछ ।

रज़ामन्दी से हमने कब कोई लम्हा गुज़ारा है,
तवज्जो कब मिली अपनी ख़ुशी और नाख़ुशी को कुछ ।

बहुत समझाया, जितने मुँह बनेंगी उतनी ही बातें,
समझ आता कहाँ हैं लेकिन अपनी ख़ामुशी को कुछ ।

जो लेते ही रहे थे ज़िन्दगी से, मर गए कबके, 
वो ही ज़िन्दा रहे, देते रहे जो जिन्दगी को कुछ ।

अभी बेवजह ख़ुश-ख़ुश था अभी बेवजह चुप-चुप है,
नहीं कुछ ठीक इस दिल का, घड़ी को कुछ घड़ी को कुछ ।

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