अनजानी गली

ये मैं कहाँ आ गया हूँ?
ये कौन लोग हैं जो सड़कों पे मेरे अगल-बगल चल रहे हैं?
क्या ये मेरे अपने हैं?; क्या इन्हें मेरी फिकर है?
वो कौन थे, जो हरपल खुद को छोड़ मेरी सोचते थे।
कभी दो दिन भी अलग रहना मुश्किल था - आज हरदम उनसे दूर हूँ।
कभी नये रास्ते पे जाने से भी डर लगता था - आज पता नहीं किस ओर चला जाता हूँ।
कभी वो आखिरी दिन फिर से जी लेने को जी मचलता है।
दिन भर इस अनजान सी जगह में अनजान से लोग मिलते हैं - सब चलते ही जाते हैं।
गिर पडूँगा तो मुझे उठाएगा कौन, मैंने सोचा ही नहीं।


ना जाने कैसी जगह है ये - कहीं कोई चीथड़ों से तन ढंकता है तो कहीं कोई चीथड़ों से तन दिखाता है।
चकाचौंध और स्वार्थ की दमक भी आराम के लिए सादगी से भरी मिट्टी माँगती है।
ये खोखली ऊँची इमारतें , कब मुझे अदनी लगने लगीं - पता ही नही चला?
कब वो नज़रें बिछाये घर में अकेली बैठी औरत से दिन में एक बार बात करने को तरसने लगा - पता ही नहीं चला?
कब मेरी कठोर खोल को उस कोमल स्पर्श की फिर ज़रूरत महसूस होने लगी - पता ही नही चला?
कैसे अपनी ज़िन्दगी को खुद से अलग कर पाया - पता ही नहीं चला?
उस स्टेशन से घर के रास्ते में जो अपनापन सा लगता था - वो कहाँ गया?
वहाँ के हर इंसान गली-चौराहे में मेरी ही तो खुशबू थी - यहाँ क्या रखा है?
वहाँ की तो हवा भी ख़ुशी से बाहें खोल मुझे गले लगाती है - यहाँ दो घड़ी हाल भी कौन पूछता है?
दिल तो वहीँ रह गया है; और मुस्कान भी -
तो मुझे यहाँ से ले चलो माँ - अपने शहर की ओर
जहाँ मैं शाम को कुछ पल तुम्हारी गोद में लेट सकूँ और फिर बाकी ही क्या बचता है?
हलके- हलके से मुझपर हाथ फेर देना और रात में ठण्ड लगे तो कम्बल उढ़ा देना।
और हाँ, जब वापस जाऊँ तो रोना मत -
क्योंकि मैं तुम्हारे ही तो पास हूँ; मैं यहीं तो हूँ।।

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