त्रिनेत्र
आदि तू, अनंत तू, है राम का हनुमंत तू
तू राह, तू ही है पथिक, तू चाह, तू ही है रसिक
सब कुछ है बसा तुझ में, सब तेरा ही रूप हैं
जल, अग्नि, वायु, धरा, आकाश पंचतत्व हैं
भूत से भी भूत तू, है अंत का अनंत तू
समय के इस चक्र में, हर पल है वर्तमान तू
है रात्रि, अंधकार तू, है दिन का प्रकाश तू
संध्या और, प्रातः के, मेल का प्रमाण तू
नारी और नर भी तू ही, मिलन, चमत्कार तू ही
भौतिकी से परे, हर कण में है विद्यमान तू ही
शून्य है, विक्राल है, ना काल, महाकाल है
दसों दिशाएं कम पड़ें, ये समय के ना सार हैं
है शक्ति का आरंभ तू, वीरभद्र, प्रचंड तू
दुष्काम का संहार तू, फिर भी है भोलेनाथ तू
अनंत धन, अनंत ऋण, हैं ना शून्य, तेरे चक्र हैं
सब ही भावनाएं तुझसे, सारे भाव ही पवित्र हैं
समझा हूँ कुछ अनंत को, अनभिज्ञ हूँ, कृतज्ञ हूँ
कृपा तेरी बनी रहे, इसी आस में मैं तृप्त हूँ