वृक्ष की गुहार

जी लिए हज़ारो साल मैंने है
किस्से कुछ अनकहे मुझे आज कहने है
परिवर्तन के भावुक दौर से गुज़रते हुए
बदलते मौसमो के साथ, चेहरे बदलते देखे मैंने है |

एक वक़्त था जब खुद सुबह मुर्ग की कुकडूकू से जगती थी
तब उन नटखट बच्चो की मुस्कान मेरे आँगन ही नाचती थी
खेतो को निकलते थे किसान भोर होते ही
और ग्रहस्थी गागर ले नदिया को भागती थी |

बड़े से एक घर में बड़ा शोरो गुल सा रहता था
हवा में मानो जैसे अपनापन सा बहता था
होली, ईद, दिवाली - सब पर सातो रंग बिखरते थे
पूरा परिवार एक साथ जब वहा रहता था |

याद है मुझे पूरे गाँव ने खुशिया मनाई थी
जब उस माँ की गोद में नन्ही सी जान आई थी
लाड़ो से पाला था अपनी औलाद को
मुस्कान में जिसकी माँ की जान समाई थी |

बरसो बीते बरसात, सर्दी, गर्मी फिर सावन आया
सूखी माँ की आँखे पर विलायत से बेटा न वापस आया
और एक ही घर में हुई दीवारे
न जाने एकांत सबको है कितना भाया |

पर आया,
आया था एक तूफ़ान, बालाएं जिसकी मुझपर थी
दलित-ब्राह्मण प्रेमी युगल की बात सबके मुख पर थी
पंचो ने लिया था क्यों वो फैसला
क्यों उन दोनों की लाश लटकाई मुझपर थी |

माँ बाप के आदर में ही इज़्ज़त, ये बात पुरानी लगती है
हर बात में नोका झोंकी ये बात सायानी लगती है
क्या शिक्षा ली तूने ऐ पीढ़ी - गुज़रे अंतिम सांसे उनकी
वृद्धाश्रम में, ये बात सुहानी लगती है |

था मैंने भी कभी प्यार किया
पास खड़ी एक इमली पर अपना दिल था वार दिया
पर तुम मनुष्यो ने कुछ ज़मीन की खातिर
मेरी प्यारी इमली को जड़ से ही काट दिया |


सहा नहीं जाता अब मुझसे, देखा बहुत कुछ मैंने है
पलयान करू मैं बस इन शब्दो से
जी लिए हज़ारो साल मैंने है
जी लिए हज़ारो साल मैंने है |

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