एहसास - जन्म का
जब जन्म लिया तो क्या पाया,
कुछ था तो केवल आँखों में आंसू और किलकारी,
जो लग रही थी पूरे घर को मतवाली,
लेकिन फिर मुझे ये दुःख किस बात का था,
शायद एक नये अनुभव और एहसास का था,
जान गया था में की जो छोड़ कर आया हूँ जो वही दोबारा बिताना होगा,
इस जीवन के भारी चक्र को पुनः चलाना होगा,
पर अब जगह नई है, लोग नये है, अगर कोई नहीं बदला है तो वो है एहसास,
फिर मिलेगी ख़ुशी बचपन की, फिर मिलेंगे लंगोटिए यार,
फिर तोड़ेंगे कांच की खिडकिया, और खायेंगे आम आचार,
फिर चुरायेंगे बगिया से आम, और बनायेंगे नये गुलाम,
फिर बनाये नये खेल, और लगायेंगे पेसो के पेड़,
घुस जायेंगे घर में चोरी छुपे , कहीं माँ को भनक ना लगे,
वो भी तो चिंता करती है, मेरी बीमारी में वो रात भर जगती है,
जाने कैसी है खुद ही पिटती है और खुद रोती है,
क्योंकि माँ तो माँ ही होती है,
पहले भी एसी ही थी और अब भी एसी ही है ,
बदले तो बस चेहरे है,
प्यार, दुलार, ममता तो वही है,
बस यही तो चाहिए , यही सब तो दे रहा है हिम्मत पिछला सब कुछ भुला देने की,
और आगे बढ़ जाने की, बिना कुछ जाने और समझे, बस सीखते रहने की,
बाबा का भी दुलार अजीब है जब भी मिला तो बड़ी की कर्कश ध्वनि में मिला,
पर उसी नें जीवन में सही पथ पर धकेला,
अब में भी बड़ा हो रहा हूँ, जीवन समझ तो आ रहा है,
किन्तु माँ – बाबा को खो रहा हूँ...
सोचता हूँ क्या ये सब एसे ही होना चाहिए,
पता नहीं अगली बार देखेंगे अभी तो इसको ही संवार लूँ......