समय या हथकड़ी ?
मेरी हथेली में समय बताती , मेरी घड़ी मुझे ज़िन्दगी के सारे वक़्त दिखाती है .
यूँ चलती हुई हर डगर में ,मेरी घड़ी मेरी हाथों में खिलखिलाती है .
टिक टिक करते उसके काटें जैसे चिखतें हो मझे ,की ऐ खुदा के बंदें ,एक वक़्त ही तो है जो तुझे बांधे है ,
की वक़्त बीत जाएगा ,और फिर वापस न आएगा ,फिर सब कुछ हार के तू ,कहाँ जायेगा ?
गुज़रते थे हर दिन हर घंटे ...
इन काटों की टिक टिक सुनते.
एक दिन हुआ गज़ब यूँ ,की समय ठहरा था ज्यूँ का त्यून !!..
किए हमने अपने सारे काम..कुछ बातें हसीं ,लिखें कई कलाम ,
याद भी किया उनका नाम ..
पर वक़्त था ठहरा वहीँ का वहीँ ..
हमने आज आसमान को निहारा ,तारों से बातें की ,
खोयें थे जिस नफरत और खुदगर्ज़ी के मेले में ..
वापस मिली खुद से , खुद को पाया ..
किये बादलों की सैर हमने ..जी भर के गीत भी गायें ..
ताजुब की बात है ,दिल में न कोई ज़ोर ,न कोई बाँध है
पर वक़्त वहीँ का वहीँ ..
ऐसा पहले न कभी महसूस किया ,
न ऐसी आज़ादी न ऐसी ख़ुशी.. .
क्या वक़्त की बंदिश इतनी हावी है इंसान पर ?
ये सच था की टूट गयी थी मेरी घड़ी,पर क्या वक़्त रुक गया था ?
क्या वक़्त किसी के लिए रुकता भी है ?
या फिर वो सोच टूट गयी थी जिसने हमें वक़्त की बेड़ियों से इस कदर बाँध दिया था की हम जीना ही भूल गए ?