एक उभरता सवेरा
आपके ही ज़र्ब से होगा एक सवेरा,
नहीं तो होगा रैन में भी काल का बसेरा।
मेल से ही मानव में होगी प्रभा की धारा,
तू मैं को भी दग्ध कर,
अप्रतिहत चल तू पथ पर।
वज्र उर को तोड़कर,
विरक्त को भी ध्वस्त कर,
तुम जिंदगी की ओज से,
विषादमुक्त वियोग से,
हर सम्त को मस्त कर,
निनाद जब समासीन होगा
तब भव कर तल पर होगा।
कृश मन का भी कगार होगा
सस्मित सी होगी चाँदनी,
तब अनुराग का भी विसार होगा।
बगैर तेरे योग के,
दुस्तर छति का आभास होगा।
हे विश्रांत मानव आज तू,
सानन्द से अलाप कर ,
कि काटों भरे राहों पर,
मुकुल का विकास होगा।
और आतपयुक्त लहू में भी
सर का प्रवाह होगा।
तेरे हर्ष के साथ साथ
उल्लास का भी घात होगा।
उस दिन तुम्हारा ह्रदय भी,
सदर्प जग के साथ होगा।
जिस दिन मेरे शीष को,
तेरे कंधो का आस होगा।
एक ही भगवान एक दिन
सिर्फ एक ही आजान होगा
जिस दिन समस्त दैर-ओ-हरम में,
इंसान का सम्मान होगा।
फिर जग उस दिन नवजात होगा
जब सबकी जीत में मानवता का प्रकाश होगा।