खिड़की

वो गुमसुम सी खोई-खोई
भीतर-बाहर है निहार रही,
वो चहक, महक से सुबह-सुबह
देखो, है घर को सवार रही,
वो दूर उदित होते सूरज की
किरणों को न्योता दे के,
घर की सुन्दरता पर देखो
लाकर है धूप पसार रही।


कलरव करते एक झुंड से पंछी
उसपर ज्यों बैठा आकर,
वो हुई प्रफुल्लित देख उसे
दिन होते ही साथी पाकर,
पर रुका नही वो जीव वहाँ
वो छोड़ गया सूना उसको,
जो दाने बिखरे थे चावल के
उड़ चला दूर उनको खाकर।


ध्वनि एक गूंजती है घर के
दीवारों को सहलाती है,
सुनकर है खिड़की महक उठी
संग अपने घर महकाती है,
वो भर खुशबू उपवन की खुद में
बैठी है अब उसके पथ में,
करती है खुश वो रोज उसे
जो गृहलक्ष्मी कहलाती है।


वो रूककर अब चौखट पर उसकी
बाहर का दृश्य निहार रही,
वो, अपने स्नेह परश से
सुन्दरता इसकी है दुलार रही,
खुश है खिड़की साथी पाकर वो
जो छोड़ गया था अभी उसे,
चौखट पर उसके खड़े सखी
हर एक पंछी को पुकार रही।


वो उसे दिखा रही सुन्दरता
उन पत्तों की उन फूलों की,
जो सूख चुके गिरकर धरती पर
उन पर चिपकी उन धूलों की,
वो उसे दिखाती है उपवन में
फैले किरणों की रोचकता,
वो उसे दिखाती है मैत्री
उपवन के पुष्पों-शूलों की।

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