सवाल
आया था जब इस अनजाने से जहान में,
ना पता था मुझे मज़हब मेरा और हूँ किस समाज से।
हुआ बड़ा तो कहा गया "तू तो हिन्दू है",
पायेगा रब्ब को "गीता" के मंत्रो के बखान से।
जैसे जैसे बड़ा हुआ एक उलझन सी बढ़ती रहीं,
कुछ थी बातें मन में जो छुपके से कहीं खटकतीं रहीं।
भगवान आख़िर है भी या है नहीं,
सोच की पतंग उड़ने से पहले ही कहीं अटकती रहीं।
कोई कहे तेरे तो अनेको रूप हैं,
तो कोई कहे तू तो बंदगी से मुक्त अरूप है।
कहते तो हैं यहाँ की जिसमे भी तुझे देखना चाहो,
वही बस तेरा बस सच्चा सरुप है।
तो क्यों एक हिन्दू न मस्ज़िद में तुझे देख पाता है,
और क्यूँ एक मुस्लमान मंदिर में तेरे होने को झूठलाता है।
जब कहते हैं सब कि तू है हर जगह,
तो आख़िर क्यूँ ये इंसान तुझे पाने को मंदिर-मस्ज़िद बनाता है।