मुसाफ़िर
चल चला चल मुसाफ़िर अपनी मंजिल की ओर
डगर डगर ठोकर है दूर मंज़िल की छोर
कोई कहे बांए कोई मुड़ दाएं की ओर
बंद आंखों से चला ढूंढने कोहरे की भोर।१।
जलती रेत पर चलके करता है तपस्या कठोर
प्यास तृप्त करता है पीकर आंखो की लोर
नदियां भी इक होती हैं पाकर समंदर की छोर
मन कल्पित अभिलाषा ले हो न पता भाव - विभोर।२।
मदिरालय ओर डगर बढ़े हांथ प्याले की ओर
हाला भी गिर पड़ा सुनकर साकी की शोर
कैसे मिटे तंद्रा तन का मन व्यग्र हुआ
सूरज भी गश खाकर छिपा पहाड़ों की ओर।३।
निस्तब्ध हो एकटक देखे वो तारों की ओर
धड़कन बढ़ने लगती जब देखे जुगनू की ओर
पग का शूल कहता है जग मेरे नीचे
चेतना से विवश हो चला मुसाफ़िर मंजिल की ओर।४।