दास्तान-ए-मुहब्बत

ज़मीं को आसमां से जोड़ आशियाना बनाते हैं,
चलो पानी पे चल कर एक करतब हम दिखाते हैं।।
 

लगाकर आंख मे सुरमा मुहब्बत लूट लेती है,
एक हम जो चाव से लिखकर तुझे कविता सुनाते हैं।।
 

तेरी आहट की खुश्बू भांप कर दम है बड़े मद में,
उसी खुश्बू का जाम जायका लेकर पिलाते हैं।।
 

मुहब्बत यूं नहीं बदनाम है कोठे,मयखानों में,
निकलते आंसुओं का बोझ अब शायर उठाते हैं।।
 

वकालत की नहीं किसने मुहब्बत को बचाने की,
मुकम्मल कर नई साज़िश रक़ीब जीत जाते हैं।।
 

जिसे कहते सभी ग़ालिब, मुहब्बत की नुमाइश था,
चलो चलकर के उसकी कब्र पर चादर चढाते हैं।।
 

परिंदा मार देता पर हमारे आशियाने पर,
पता क्या उसको है कि जोड़ तिनका घर बसाते हैं।।
 

चलो बर्बाद कर दी जन्नतें मेरी सभी फिर भी,
खुदा से मांग मन्नत फिर तुझे वापस बुलाते हैं।।
 

जनाज़ा रोज़ उठता है ग़ज़ल औ शेर से मेरे,
तेरे हर इक तसव्वुर,किश्त में करके भुलाते हैं।।
 

चुकाना पड़ रहा मंहगा औ बढता जा रहा है ऋण,
हैं बनके ज़िद्दी शायर शायरी करके चुकाते हैं।।

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