रोज की तरह

रोज की तरह,
न जाने कहाँ से, आ जाती है,
मेरे मन पर,
मन के दरवाज़े पर,
सुबह सुबह
अखबार की तरह,
नाश्ते में अचार की तरह,
गीले बालो की सिलहन सा भिगोकर,
मेरे जीवन में खुद को पिरोकर,
फिर आ पहुंची हैं,
रोज की तरह
 

मेरी लाठी सा लड़खड़ाती हैं,
फ़टे कम्बल में कँपकँपाती है,
हसती हैं, चिढ़ाती हैं मुझको,
मेरा हाल पूछकर,
मैं भी खांस देता हूँ कहते कहते,
देखो यूँ न सवाल करो,
उम्र दोनों को आयी हैं, "बेगम"
कुछ तो ख्याल करो,
हजार सलवटे लिए चेहरे पर,
फिर पूछती है मुझसे,
मैं कैसी दिख रही हूँ,
और मैं भी तेरी तारीफों की अलमारी से,
चुरा लाता हुँ एक शब्द
"माशाल्लाह",
रोज की तरह।
 

पर ये सर्दियों की धुंध,
कम्भख्त,
छिपा देती हैं
बना देती हैं,
धुंधला मेरे टूटे हुए चश्मे को,
और मैं देख नहीं पाता,
कर नहीं पाता,
बातें तेरी तस्वीर से,
रोज की तरह

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