तुलसीदास

जीवन परिचय

महान कवि तुलसीदास की प्रतिभा-किरणों से न केवल हिन्दू समाज और भारत, बल्कि समस्त संसार आलोकित हो रहा है । बड़ा अफसोस है कि उसी कवि का जन्म-काल विवादों के अंधकार में पड़ा हुआ है । अब तक प्राप्त शोध-निष्कर्ष भी हमें निश्चितता प्रदान करने में असमर्थ दिखाई देते हैं। मूलगोसाईं-चरित के तथ्यों के आधार पर डा० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल और श्यामसुंदर दास तथा किसी जनश्रुति के आधार पर "मानसमयंक' - कार भी १५५४ का ही समर्थन करते हैं। इसके पक्ष में मूल गोसाईं-चरित की निम्नांकित पंक्तियों का विशेष उल्लेख किया जाता है।

पंद्रह सै चौवन विषै, कालिंदी के तीर,
सावन सुक्ला सत्तमी, तुलसी धरेउ शरीर ।

तुलसीदास की जन्मभूमि होने का गौरव पाने के लिए अब तक राजापुर (बांदा), सोरों (एटा), हाजीपुर (चित्रकूट के निकट), तथा तारी की ओर से प्रयास किए गए हैं। संत तुलसी साहिब के आत्मोल्लेखों, राजापुर के सरयूपारीण ब्राह्मणों को प्राप्त "मुआफी' आदि बहिर्साक्ष्यों और अयोध्याकांड (मानस) के तायस प्रसंग, भगवान राम के वन गमन के क्रम में यमुना नदी से आगे बढ़ने पर व्यक्त कवि का भावावेश आदि अंतर्साक्ष्यों तथा तुलसी-साहित्य की भाषिक वृत्तियों के आधार पर रामबहोरे शुक्ल राजापुर को तुलसी की जन्मभूमि होना प्रमाणित हुआ है। 

रामनरेश त्रिपाठी का निष्कर्ष है कि तुलसीदास का जन्म स्थान सोरों ही है। सोरों में तुलसीदास के स्थान का अवशेष, तुलसीदास के भाई नंददास के उत्तराधिकारी नरसिंह जी का मंदिर और वहां उनके उत्तराधिकारियों की विद्यमानता से त्रिपाठी और गुप्त जी के मत को परिपुष्ट करते हैं । तुलसीदास के माता पिता के संबंध में कोई ठोस जानकारी नहीं है। प्राप्त सामग्रियों और प्रमाणों के अनुसार उनके पिता का नाम आत्माराम दूबे था। किन्तु भविष्यपुराण में उनके पिता का नाम श्रीधर बताया गया है। रहीम के दोहे के आधार पर माता का नाम हुलसी बताया जाता है।

सुरतिय नरतिय नागतिय, सब चाहत अस होय ।
गोद लिए हुलसी फिरैं, तुलसी सों सुत होय ।।

तुलसीदास के जीवन पर प्रकाश डालने वाले बहिर्साक्ष्यों से उनके माता-पिता की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर प्रकाश नहीं पड़ता। केवल "मूल गोसाईं-चरित' की एक घटना से उनकी चिंत्य आर्थिक स्थिति पर क्षीण प्रकाश पड़ता है। उनका यज्ञोपवीत कुछ ब्राह्मणों ने सरयू के तट पर कर दिया था। उस उल्लेख से यह प्रतीत होता है कि किसी सामाजिक और जातीय विवशता या कर्तव्य-बोध से प्रेरित होकर बालक तुलसी का उपनयन जाति वालों ने कर दिया था। तुलसीदास का बाल्यकाल घोर अर्थ-दारिद्रय में बीता। भिक्षोपजीवी परिवार में उत्पन्न होने के कारण बालक तुलसीदास को भी वही साधन अंगीकृत करना पड़ा। कठिन अर्थ-संकट से गुजरते हुए परिवार में नये सदस्यों का आगमन हर्षजनक नहीं माना गया -

जायो कुल मंगन बधावनो बजायो सुनि,
भयो परिताप पाय जननी जनक को ।
बारें ते ललात बिललात द्वार-द्वार दीन,
जानत हौं चारि फल चारि ही चनक को । 
(कवितावली)

मातु पिता जग जाय तज्यो विधि हू न लिखी कछु भाल भलाई ।
नीच निरादर भाजन कादर कूकर टूकनि लागि ललाई ।
राम सुभाउ सुन्यो तुलसी प्रभु, सो कह्यो बारक पेट खलाई ।
स्वारथ को परमारथ को रघुनाथ सो साहब खोरि न लाई ।।

होश संभालने के पूर्व ही जिसके सर से माता - पिता के वात्सल्य और संरक्षण की छाया सदा -सर्वदा के लिए हट गयी, होश संभालते ही जिसे एक मुट्ठी अन्न के लिए द्वार-द्वार विललाने को बाध्य होना पड़ा, संकट-काल उपस्थित देखकर जिसके स्वजन-परिजन दर किनार हो गए, चार मुट्ठी चने भी जिसके लिए जीवन के चरम प्राप्य (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) बन गए, वह कैसे समझे कि विधाता ने उसके भाल में भी भलाई के कुछ शब्द लिखे हैं। उक्त पदों में व्यंजित वेदना का सही अनुभव तो उसे ही हो सकता है, जिसे उस दारुण परिस्थिति से गुजरना पड़ा हो। ऐसा ही एक पद विनयपत्रिका में भी मिलता है -

द्वार-द्वार दीनता कही काढि रद परिपा हूं
हे दयालु, दुनी दस दिसा दुख-दोस-दलन-छम कियो संभाषन का हूं ।
तनु जन्यो कुटिल कोट ज्यों तज्यों मातु-पिता हूं ।
काहे को रोष-दोष काहि धौं मेरे ही अभाग मो सी सकुचत छुइ सब छाहूं । 
(विनयपत्रिका, २७५)

लेखन शैली

किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनूरूप।।
जथा अनेक वेष धरि नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव दिखावअइ आपनु होइ न सोइ ।।

तुलसीदास की मान्यता है कि निर्गुण ब्रह्म राम भक्त के प्रेम के कारण मनुष्य शरीर धारण कर लौकिक पुरुष के अनूरूप विभिन्न भावों का प्रदर्शन करते हैं। नाटक में एक नट अर्थात् अभिनेता अनेक पात्रों का अभिनय करते हुए उनके अनुरूप वेषभूषा पहन लेता है तथा अनेक पात्रों अर्थात् चरितों का अभिनय करता है। जिस प्रकार वह नट नाटक में अनेक पात्रों के अनुरूप वेष धारण करने तथा उनका अभिनय करने से वे पात्र नहीं हो जाता, नट ही रहता है उसी प्रकार रामचरितमानस में भगवान राम ने लौकिक मनुष्य के अनुरूप जो विविध लीलाएँ की हैं उससे भगवान राम तत्वत: वही नहीं हो जाते ,राम तत्वत: निर्गुण ब्रह्म ही हैं।तुलसीदास ने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है कि उनकी इस लीला के रहस्य को बुदि्धहीन लोग नहीं समझ पाते तथा मोहमुग्ध होकर लीला रूप को ही वास्तविक समझ लेते हैं। आवश्यकता तुलसीदास के अनुरूप राम के वास्तविक एवं तात्त्विक रूप को आत्मसात् करने की है ।

प्रमुख कृतियाँ
क्रम संख्या कविता का नाम रस लिंक
1

मैं केहि कहौ बिपति अति भारी

अद्भुत रस
2

मैं हरि, पतित पावन सुने

अद्भुत रस
3

सुन मन मूढ सिखावन मेरो

अद्भुत रस
4

केशव, कहि न जाइ का कहिये

अद्भुत रस
5

हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै

अद्भुत रस
6

लाज न आवत दास कहावत

अद्भुत रस
7

देव! दूसरो कौन दीनको दयालु

अद्भुत रस
8

दूल्ह राम

अद्भुत रस
9

मेरो मन हरिजू! हठ न तजै

अद्भुत रस
10

हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों

अद्भुत रस
11

यह बिनती रहुबीर गुसाईं

अद्भुत रस
12

माधव, मोह-पास क्यों छूटै

अद्भुत रस
13

और काहि माँगिये, को मागिबो निवारै

अद्भुत रस
14

मेरे रावरिये गति रघुपति है बलि जाउँ

अद्भुत रस
15

धनुर्धर राम

अद्भुत रस
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