ये सफ़र भी न अज़ीब है Prashant Kumar Dwivedi
ये सफ़र भी न अज़ीब है
Prashant Kumar Dwivedi"ये सफ़र भी न, अजीब है....बस चलता रहता है।
आने से लेकर जाने तक और वापस लौट के आने तक।
बस्ती से महख़ाने तक,महख़ाने से पैमाने तक।
बोझिल पलकों पर रक्खे दर्दों में घुट जाने तक,
फिर उन घुटते लम्हों का आँखों से बह जाने तक.,
ये सफ़र भी न,अज़ीब है...बस चलता रहता है।
एक सिरा छूट जाने से और सिरा पा जाने तक!
हवेलियों के कमरों से किसी तवायफखाने तक!
रुँधे कंठ के रोने से गीत-माधुरी गाने तक,
आँखों के मिलने से लेकर आँखों में बस जाने तक!
ये सफ़र भी न,अजीब है....बस चलता रहता है।
मिट्टी से उठ कर बुलंदियाँ पा जाने तक,
और बुलन्दी से गिरकर, मिट्टी में मिल जाने तक।
अर्थियां उठाने से अर्थी पर उठ जाने तक,
बाद चिता में जलने से स्वयं चिता बन जाने तक।
ये सफ़र भी न,अजीब है...बस चलता रहता है।"-प्रशान्त