प्रेम भी अपरिपक्व होने लगा है Arpan Jain
प्रेम भी अपरिपक्व होने लगा है
Arpan Jainस्त्री की देह तालाब-सी है, बिल्कुल ठहरी हुई सी
उसमे नदी के मानिंद वेग और चंचलता कुछ नहीं
फिर भी पुरुष उस तालाब में ही प्रेम खोजता है,
सत्य है कि खोज की भाषा भी सिमट-सी गई है
वेग का आवरण भी कभी कुंठा के आलोक में
तो कभी पाश्चात्य के स्वर में मुखर होने लगा है
केवल तनपीपासा ही स्वार्थ का धरातल बन गई है
आख़िर सब कुछ गेंहू की बालियों की तरह
समय की परिपक्वता के सहारे बदलने लगा है
तालाब में जैसे एक ही तरह की भाषा होती है,
रोज़-रोज़ एक ही तरह का व्याकरण होता है
स्वर भी वहाँ हर रोज़ एक ही होता है,
आक्रोश भी कभी बदलाव नही दर्शाता है
वही कुछ प्रेम के नए प्रतिमानों के साथ भी
होने लगा है अब इस काल के दर्पण में
स्त्री की देह पर ही सिमटता व्यापक प्रेम
समझ की सभ्यता को मुँह चिढ़ाने लगा है
जिसका आरंभ हृदय के स्पंदन से हो कर
भीगी पलकों के प्रतीकों पर ठहरता था,
भैंसों के तबेले का बिखरा हुआ आवरण
नैसर्गिक खोज में डूबा हुआ रहने लगा है
शारीरिक क्षुधा तक ही रुकता हुआ प्रतीक
मानों पतझड़ की गर्म हवा-सा होने लगा है
आख़िर दुनिया की सबसे शक्तिशाली कोंपल का
व्यवहारिक व्याकरण विस्तार क्यूँ थमने लगा है
और वही तालाब जो हरी निरावन से पटा हुआ
दैहिक प्यास के बुझे दीपक-सा होने लगा है
किस्तों में जैसे महाजन का सूद आदमी को काटता है,
वही हाल इस समय दैहिक मौलिकता का होने लगा है
जैसे कोई पक्षी भूमंडल को स्वर अर्पण करता है
वैसे ही निश्चल प्रेम के स्वरूप का बखान भी होता है
आज पाश के प्रताप में भ्रमर के गुंजन को कचोटता
आधे-अधूरे लिबास में प्रेम भी अपरिपक्व होने लगा है।