पास आती दूरियाँ SIDDHARTHA SHUKLA
पास आती दूरियाँ
SIDDHARTHA SHUKLAशाम उस दिन लाई थी इक ऐसा लम्हा,
चाँद सूरज एक संग थे आसमाँ में,
साथ में थे दोनों लेकिन फिर भी तनहा,
थे बहुत खामोश दोनों आसमाँ में,
ताकते खामोशियों को हम भी थे चुप,
और रखे मेज पर दो चाय के कप।
उँगलियों से तुम जिसे सहला रहीं थीं,
कप के कोनों पर है अंकित तेरा चुंबन,
और कहकर अलविदा जब जा रही थीं,
काँपते होंठों पर है अंकित तेरा चुंबन,
चाँद सूरज करते क्या मजबूरियाँ थीं,
पास उनके आ रहीं कुछ दूरियाँ थीं।
आखिरी अहसास तेरी उँगलियों का,
हाथ पर महसूस अपने कर रहा था,
टूटना इक ख्वाब का मनमर्जियों का,
जिनके टुकड़े जेब में मैं भर रहा था,
जा रहा था चाँद अपना छोड़कर मैं,
मोह के हर रूप से मुँह मोड़कर मैं।
और फिर ना हुई कभी वैसी मोहब्बत,
कोशिशें भी ना किसी की काम आई,
आसमाँ में चाँद-सूरज की हो उलफ़त,
जिंदगी में फिर नहीं वो शाम आई,
देख लो नेपथ्य का नायक हुआ हूँ।
आशिकी के बाद कुछ लायक हुआ हूँ