पवित्र है तू Vivek Tariyal
पवित्र है तू
Vivek Tariyalसंवेदनाओं को मन में सहेजे हुए वह जा रही थी,
आतंकित ह्रदय और झुकी पलकें उसका हाल बता रही थी,
मन ही मन सलोने स्वप्नों की वह चिता जला रही थी,
कोमल नयनो की अश्रुधारा मातम गीत गा रही थी।
समाज के ठेकेदारों से उसे सम्मान नहीं मिलेगा,
जीवन साथी का स्वप्न कमल अब अंतर्मन में नहीं खिलेगा,
अपने ही तज देंगे उसको, रो रोकर जीवन पथ कटेगा,
निरपराध ही सही लेकिन, हर राह पर कंटक सजेगा।
पवित्रता पर उसकी, ऊँगली उठाई जाएगी,
मलिन मन रुपी तराजू में वह तोली जाएगी,
बचाव के हर प्रयास में खुद को अकेला पाएगी,
टूट जाएँगे रिश्ते सभी एकाकी वह रह जाएगी।
विकृत सोच जब किसी समाज की मुखिया बन जाती है,
नारी की लुटती है इज़्ज़त और सभ्यता पतन को पाती है,
नर पौरुष तुष्टि में हर क्षण, मानवता देह जलाती है,
अहंकार को मिलता बल, अच्छाई फीकी पड़ जाती है।
क्या यही विधि का विधान है या स्त्री जाति का अपमान है?
क्या दानवी प्रवृत्ति का यह प्रदर्शन पुरुषों का गौरवगान है?
जो ममता की है प्रत्यक्ष प्रतिमा सृजन का जिसे वरदान है,
शक्ति स्वरूपा उस ईश्वर कृति को देना हमें सम्मान है।
तू सीता है, तू द्रौपदी, तू रानी लक्ष्मीबाई है,
तू ही रज़िया सुल्ताना है और तू ही पन्ना दाई है।
तेरे सतीत्व के सम्मुख तो खुद मृत्यु भी शरमाई है,
आधार है इस धरती का तू, ईश्वर की परछाई है।
याद कर तू स्वयं को तुझमे बसी ऊर्जा अनंत,
अग्नि सम पवित्र है तू धैर्य की प्रतिमा जीवंत,
तू इस चराचर जगत में सृजनता की है महंत,
अपने चारित्रिक तेज से कर विकृत सोच का अंत।
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यह समाज समय-समय पर अपनी पुरुष प्रभुता के उदाहरण प्रस्तुत करता रहता है। आज भी बलात्कार से पीड़ित महिला को इस समाज में स्वीकारा नहीं जाता वहीं दूसरी ओर दुष्कर्मी सीना चौड़ा कर समाज में घूमता है। प्रस्तुत कविता ऐसी महिलाओं को सम्मान से बेफिक्र जीने हेतु प्रेरणा देती है साथ ही उन्हें अपने भीतर छिपी ऊर्जा को बाहर लाने हेतु आवाह्न करती है।