जद्दोजहद  रोशन "अनुनाद"

जद्दोजहद

रोशन "अनुनाद"

रात बढ़ती जाती है,
स्याह चादर का रंग
और गहरा होता जा रहा है।
 

तन्हाई अब बेचैनी बन गयी है,
नींद नहीं आ रही,
कैसी उथल पुथल है,
यही समझने में रात गुज़र रही है।
 

विचारों का धुन्धलका,
विचारण की स्पष्टता को
ढक कर नीरवता को
डरावना बना देता है।
 

इतना अँधेरा क्यों है भाई,
मैं अपने मन से पूछूं,
दूर कुकुर के भौंकने की
आवाज़ इतनी स्पष्ट है,
तब,मेरे विचारों की गूंज,
मेरे मन से इतनी दूर क्यों।

कहीं ज़मीर और मन के बीच,
कोई दीवार तो नहीं खिंच गयी,
साउंड प्रूफ,
मन,मस्तिष्क से
मात तो नहीं खा गया।
 

इस अँधेरी काली रात में,
सब कुछ काला,
बस एक ही रंग,
क्या बहुरंगी मन,
एक रंगी मस्तिष्क के साए तले,
छुप तो न गया,
खोया तो नहीं।
 

वास्तविकता बहुरंगी दिन है
या स्याह अँधेरा,
आदत न बना लूँ,
हम साया न बना लूँ
ऐसी रात जिसमे जुगनू तक न हों,
अमावस की घुप काली
बिना जुगनू वाली।
 

फिर इधर उधर हाथ पाँव
मारूं भी तो कैसे,
अँधेरा मुफ़ीद लगता है यूँ तो,
क्या कर रहा हूँ खुद को भी पता नहीं,
पता होने पर भी मुकरने का साहस,
अँधेरा ही तो देता है।
 

न जाने, चाहे-अनचाहे,
तारीफ़ भले ही उजाले की करूं,
पर मेरे कुत्सित मन के
अँधेरे कोने में खांसते,
कुचक्रों के दानव का पोषण,
यही स्याह रात,यही नीरवता,
यही अँधेरा करता है।

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