वर्षा ऋतु रोशन "अनुनाद"
वर्षा ऋतु
रोशन "अनुनाद"मद्दम मद्दम, सुगंधित पवन,
फूल-पत्तियों को सहलाती,
रिमझिम, झर-झर झरती वर्षा,
आंगन उपवन को नहलाती,
मेघों से अंदर, बाहर आकर,
तड़ित चंचल, मन बहलाती,
आवारा मेघों पर देखो,
ये कैसीे मस्ती छाती,
जहाँ तहाँ बस टहल रहे ,
जैसे बिन न्योते बाराती।
कभी गड्ड-मड्ड
कभी तितर-बितर
आसमान पर छा रहे,
अपनी तरंग, अपनी मस्ती में,
राग मल्हार गा रहे।
प्यासी धरती, जल तरंग से
जैसे पुलकित हो चली,
बहुरंगी परिधान में लिपटी,
लज्जित,सकुचित सी चली।
उसके धूसरित रूखे तन पर,
अब कोई भी मैल नहीं,
जल-थल नभ और चहुँदिस,
स्वर्णिम आभा फैल रही।
बलखाती नदिया भी
जैसे यौवन के जोश में हो,
मदमाती आगे बढ़ती,
मानो कोई होश न हो।
निडर, चपल, बहुत ही चंचल,
पिया मिलन को उद्दत है,
जैसे समंदर को निहारे,
हो गई बड़ी मुद्दत है।
प्यासे जंगल, प्यासे प्राणी,
सबको जीवनदान मिला,
जैसे मरणासन्न जीव को,
अमृत का रसपान मिला।
सब ओर उमंगे
सब ओर बहारें,
सब ओर ताज़गी छाई है,
इंतज़ार अब खत्म हुआ,
देखो वर्षा ऋतु फिर आई है।