राष्ट्र हित में हम Utkarsh Tripathi
राष्ट्र हित में हम
Utkarsh Tripathiसूझ मुझको है नही, व्यथा व्यक्त कैसे करूँ,
संवेदना और स्वाभिमान के रंग कैसे मैं भरूँ।
(बस चाह है कि,)
चीत्कारती इस भारती को कुछ दिलासा दे सकूँ मैं,
संवेदना के इस रुदन को कोई भाषा दे सकूँ मैं।
वृष्टि हो ओलों की या फिर धूप की तपन भरी हो,
हो कोई माहौल; माँ को छत की आशा दे सकूँ मैं।।
आओ जल्दी से तुमको कविता का संदर्भ दिखाता हूँ,
विकसित होते भारत का मैं, गर्भ दिखाता हूँ।
विश्वगुरु के सपने में जो हम सब खोए हैं,
आईना दिखाकर सबको गर्दभ दिखाता हूँ।
भूखों का भारत मे सोना अब भी क्यों है,
नारी के सम्मान पर प्रश्न ज्यों का त्यों है।
अरे,
देश-दुनिया के दुर्दिन को लिख पाना ही भारी है,
और किसी को दोष क्यों दूँ, हम सबमे अत्याचारी है।
आज भी एक तबका बेहाल है, कंगाल है,
दो जून की रोटी का आज भी सवाल है।
कठघरे में घेरें किसको ,
जब चाणक्य ही, सत्ता का दलाल है।
रक्त रंजित बादलों का बरसना कब बन्द होगा,
हिडिम्ब के आगे सज्जनों का परसना कब बन्द होगा।
मुश्किलों को हरने वाला शेर मालूम भी नही है,
भीम के जागने में देर मालूम ही नही है।
क्या राष्ट्र भक्ति अब पूर्व की सिर्फ गाथाओं का किस्सा बनेगी,
कब मातृभूमि युवाओं के ख्वाबों का हिस्सा बनेगी।
दम तोड़ती मानवता में प्राण जागेगा कब फिर से,
कब बरसेगी स्नेह गंगा फिर किसी हिम गिर से।
दंगे फसाद के माहौल का आखिर हल क्या है,
ऐसी काव्यकृतियों का आखिर फल क्या है।
गलती देखने के लिए अब जरूरत है दर्पण की,
राष्ट्र भक्ति के धुन में यारों अपने सर्वस्व समर्पण की।
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कभी-कभी ऐसा होता है कि परिदृश्य को देख के आपकी राष्ट्र भक्ति आपको झकझोरती है,अनेक विचार निकलते हैं कुछ काव्य बद्ध हो पाते हैं कुछ नहीं। देखिए, कृपया कविता सिर्फ प्रशंसा पाने के लिए नही लिखी गई है, इसका ध्यान दें, कविता में कमी हो सकती है, लेकिन एक बार आवाज़ समझने का प्रयास जरूर करियेगा।