जनाब, मैं कुर्सी हूँ शशांक दुबे
जनाब, मैं कुर्सी हूँ
शशांक दुबेजनाब मैं कुर्सी हूँ, मैं बस अपने-सपने बुनती हूँ।
शब्दों की सारी परिभाषा, मैं ही गढ़ती हूँ,
जिससे पूरी हो अभिलाषा, मैं बस वह ही चुनती हूँ।
ज़नाब मैं कुर्सी हूँ,मैं बस अपने-सपने बुनती हूँ।
लाल-हरा, नीला या भगवा, मैं तय करती हूँ,
निज स्वार्थ के हित ही, मैं सब रंग चुनती हूँ।
ज़नाब मैं कुर्सी हूँ, मैं बस अपने-सपने बुनती हूँ।
जिसने चलना सिखलाया, उसको ही छलती हूँ,
वक़्त पड़े तो गर्दभ को,,मैं पिता भी कहती हूँ।
ज़नाब मैं कुर्सी हूँ,मैं बस अपने-सपने बुनती हूँ।
ज़नाब,मैं कुर्सी हूँ.....