एक दुनिया ऐसी भी Saurabh Maurya
एक दुनिया ऐसी भी
Saurabh Maurya"जी" टूट रहा है लाखों का, पर टूटने की बात कौन करता है ।
"दम" निकल रहे हैं लाखों के, पर दम डालने की बात कौन करता है ।
"घर" तो बस रहे हैं लाखों के, घर बसाने की बात कौन करता है ।
और बदल दी है सूरत जिसकी, उसे बदलने की बात कौन करता है ।
हाँ जी टूट रहा है लाखों का ,पर टूटने की बात कौन करता है।।
अपंग बना रहे हैं लाखों को, पर परिपक्वता की बात कौन करता है।
नज़दीक कर रहे हैं लाखों को, पर नज़दीकियों की बात कौन करता है ।
विकसित कर रहे हैं लाखो को, पर विकसित करने की बात कौन करता है।
हां "जी"टूट रहा है लाखों का, पर टूटने की बात कौन करता है।
अब सूख गए हैं वह आँसू, जो प्रतिदिन छलका करते थे।
अब छा सा गया है वह सन्नाटा, जो नित दिन चहचाहाया करते थे।
कहीं गायब सी हो गई है वह दुनिया जो जग महकाया करते थे
हां जी, टूट गया लाखों का, पर जी टूटने की बात कौन करते थे।