गाँव और शहर tarun chand
गाँव और शहर
tarun chandन जाने कितने वर्षों बाद,
लेटा हूँ खुले आकाश के तले,
देखता हूँ वो दूधिया चांदनी,
और टिमटिमाते तारे।
किरोसिन की वो डिबिया,
जो जल रही है कहीं दूर,
और वो बहती पुरबइया,
जैसे सुलाना चाहती हो नींद की गोद में।
सहसा ख्याल आता है,
कितनी दूर था मैं प्रकृति से,
अपार्टमेंट की बंद दीवारों में,
क्या कभी नीले आकाश को देखा था मैंने
रोशनी की चकाचौंध में,
जैसे अँधेरा भुला बैठा था मैं।
कंक्रीट के जंगलो में,
जहाँ शराफत का नकाब ओढ़े,
आदमखोर बसते हैं,
रात तो होती ही नहीं,
जैसे होड़ लगी हो जागने की।
सुबह हुई,
बारिश आयी,
निकला देखा एक इंद्रधनुष,
जिसे पढ़ा था केवल किताबों में,
स्पष्ट मेरे सामने, सतरंगी, अद्धभुत।
काश गाँव हमेशा रहे,
वो कभी न बन पाए शहर,
अंधी दौड़ की इस दुनिया में,
मेरे जैसा कोई अभागा,
कभी तो जड़ों को खोजता आएगा,
और गर्व करेगा कि भारत गाँव में बसता है,
जीवन सही मायनों में यही हँसता है।
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मेरी यह कविता गाँव और शहर की एक तुलनात्मक परिचर्चा है। यह एक प्रेरणादायी कविता है जो गाँव के वातावरण का चित्रण करती है और बताती है कि किस तरह यह शहरों की अंधाधुंध गलाकाट समाज से भिन्न है। शहरों के गैस चैंबरों में परिवर्तित हो जाने से ना तो वहाँ कि हवा शुद्ध है और न पानी, कुकुरमुत्तों की तरह खड़ी गगनचुंबी बिल्डिंगों के कारण हम कभी खुले आकाश को, टिमटिमटाते तारों को देख ही नहीं पाते| शहरी बच्चों ने इंद्रधनुष को केवल किताबों में ही देखा होता है। मैंने कविता के माध्यम से यह प्रेरणा दी है कि गाँव के माध्यम से किस तरह प्रकृति की गोद में जाकर हमें ख़ुशी मिलती है।