एक आस Payal Maru
एक आस
Payal Maruआज भी एक माँ अपने आँसू दबाए सी है,
कहीं दूर, एक बेटी पढ़ने को तरसी सी है,
एक औरत, अपने जख्मों से हरी है,
एक बहन, अपने भाई में ही हर खुशी समाए सी है,
आज भी उसके पर कटे हैं, पग बँधे हैं
पर वो घबराई नहीं है।
उस बेकसूर नादान ने जबरन ही मृत्यु को चुना है,
उस मासूमियत ने चुपचाप हर जुल्म सहा है,
दिलासा सब देते हैं,
हक़ का ज़िक्र कोई करता नहीं,
बदलते वक़्त को तो देखो,
इनके हौसलों पर आज आसमान भी सर झुकाए है।
ना, अब और नहीं,
हम अपना दौर खुद ले आएँगे,
बिलखती माँ को गूँजती किलकारी लौटाएँगे,
हम अपना समय खुद लाएँगे,
राख सी हथेली का भविष्य खुद लिखेंगे,
अपना आशियाना खुद सजाएँगे।
उन गमगीन आँखों के सपने,
उन नन्हे कदमों की प्यास,
उस हँसी को आवाज़,
हम सब मुक्कमल कर लाएँगे,
है एक आस।
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प्रस्तुत कविता "एक आस" के माध्यम से यह कहने का प्रयास किया गया है कि आज भी नारियों को पूर्णरूपेण अपने हक़ नहीं मिल पाए हैं। आज भी समाज में कुछ जगह कन्या भ्रूण हत्या होती है, लड़कियों को स्कूल नहीं भेजा जाता है। लेकिन फिर भी एक आस है। हर क्षेत्र में लड़कियाँ आगे आ रही हैं, अपना भविष्य खुद बना रही हैं। उन्होंने हार नहीं मानी है और वो एक दिन सब मुकम्मल कर लाएँगे। आस पर ही सब कुछ टिका है।