अंधकारों का त्यौहार  deepayan Mukherjee

अंधकारों का त्यौहार

deepayan Mukherjee

जब-जब त्यौहार आते हैं,
ढेरों खुशियाँ संग लाते हैं,
लाते हैं साथ अपने व कई रंग,
जश्न, उल्लास और उमंग।
पर क्या यह खुशियाँ यथेष्ठ हैं,
क्या हैं यह सभी की भांति
क्या इनकी तरंगों से सुलगाई जा सकती है,
विलापित जीवन की जीर्ण बाती?
 

क्या होली के रंग कर सकते हैं रंगीन,
गरीब की बेरंग ज़िन्दगी को ?
क्या गुजियाओं की मिठास कर सकती है उल्लासित,
उनके हताश जीवन को ?
दशहरे की चकाचौंध भी तो आती है,
नव दुर्गा का भी होता है आह्वान,
पर फिर भी तो बंद कमरों में
किया जाता है नारी का अपमान।
फिर दीये भी जल उठते हैं, 
आती है जब दिवाली,
पर वहीं भूख प्यास से तड़प रहे कई
निभा देते हैं अपने जीवन की बाती।
 

क्या यही जीवन की विडम्बना है?
क्या यही है जीवन का सत्य निर्मम ?
क्या कभी नहीं आएगा इन सभी के जीवन में
उमंग और आशा की एक नई किरण?
क्या राम-कृष्ण के किस्से रह जाएँगे
हमेशा ही पौराणिक किताबों में बंद,
क्या अच्छाई की स्थापना की संकल्पना
रह जाएगी, हमेशा ही एक काल्पनिक विस्मरण।
 

कभी क्या त्यौहार सभी के लिए होंगे ?
क्या सभी के लिए होंगी कभी खुशियाँ ?
क्या कभी अंधकारों का त्यौहार देखेगा,
उगते सूरज के प्रकाश से उद्बोधित दुनिया।

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