इतिहास मगर फिर रोएगा  शशांक दुबे

इतिहास मगर फिर रोएगा

शशांक दुबे

जब-जब घोड़ा बोझ किताबी अपनी पीठ पर ढोएगा,
हँसेगा तब-तब संविधान, इतिहास मगर फिर रोएगा।


घर का बुजुर्ग लज्जित हो, जब-जब अपमानित होएगा,
हँसेगा तब-तब संविधान, इतिहास मगर फिर रोएगा।


रोज़गार से वंचित युवा, जब-जब आपा खोएगा,
हँसेगा तब-तब संविधान, इतिहास मगर फिर रोएगा।


अपनी फसलों पर जब किसान, खून के आँसू रोएगा,
हँसेगा तब-तब संविधान,इतिहास मगर फिर रोएगा।


सीमा पर जब-जब जवान लाशों की लड़ी पिरोएगा,
हँसेगा तब-तब संविधान, इतिहास मगर फिर रोएगा।

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