पत्थर kumar pandit
पत्थर
kumar panditवो ठोकर मार गया मुझे पत्थर समझकर,
मैं ज़िंदा रखे हुए हूँ खुद को पत्थर समझकर।
मैं पत्थर ही हूँ आज़माओगे क्या?
झरना पहाड़ों से फूटता है जैसे, रूलाओगे क्या?
के तुम शौक रखते होंगे सोने, चांदी, हीरों का,
देखोगे गर गौर से मेरे आँसू तो न जाने पाओगे क्या?
वो जो कभी धड़कता था तुम तोड़ गए,
अब पत्थर है जलाओगे क्या?
और जलाने से भी कहाँ कुछ बिगड़ता है पत्थर का,
तो क्या अब नज़रें झुका कर उठाओगे क्या?
पत्थर भी अब आदमियों जैसे शिकायत करते हैं,
तुम यही पत्थर से पत्थर होते गए तो हमारा दाम गिराओगे क्या?
कुछ शिकवा करो कुछ आहें भरो
उस पत्थर दिल को तड़पाओगे क्या?
पत्थर ही पत्थर का दर्द का समझ सकते हैं,
तो अब पास आओगे क्या?
और आना ही है तो सचमुच पत्थर ही बनकर आना
नहीं तो वापिस जा पाओगे क्या?
आकर तुम करोगे क्या, पत्थर में पाओगे क्या,
जला दो तो भी पत्थर, दफ़न कर दो तो भी पत्थर,
जोड़ दो तो भी पत्थर तोड़ दो तो भी पत्थर।
पत्थर-पत्थर का भी अपना नसीब है,
पत्थर तीरथ भी हो सकता है,
पत्थर गारत भी हो सकता है,
पत्थर सूरत भी हो सकता है,
पत्थर मूरत भी हो सकता है,
पत्थर नीर भी हो सकता है,
पत्थर तीर भी हो सकता है,
उस बेवफा पत्थर की बनिस्बत
बता रहा हूँ कि
के पत्थर शरीर भी हो सकता है।