तेरा इंतज़ार "हमेशा" kumar pandit
तेरा इंतज़ार "हमेशा"
kumar panditवो तो तेरा था ही नहीं फिर कैसे छोड़ गया,
पहली मुलाकात में ही गँवा चुका था तू जो दिल उसको कैसे तोड़ गया।
ग़ज़ल
सिसकते हैं मेरे दिन तड़पती हैं मेरी रातें मगर आवाज न आए,
जीते जी दो बूँद पानी को तरसे, बाद मरने के गंगा बहाये।
इसका अंदाजा तो था कि वो भूल जाएगा एक दिन,
मगर हरगिज इल्म न था उस दिन का कि पहचान भी न पाए।
वो दरिया से उसकी दरियादिली पूछ रहे हैं,
अब वो बेचारा एक आँसू क्या बताये।
तेरे वादे को कभी झूठा न समझा,
दरवाजा खुला छोड़ रखा है न जाने वो कब आ जाए।
और भूल जाऊँगा मैं उसकी खातिर उसे,
मगर वो जो हर चेहरे में है ना किसी चेहरे में नज़र ना आए।
वो एक भूल जो तुम भुला न पाए,
और उनका क्या जिनका हम हिसाब भी न लगाए।
आ जाना तू कहीं भी कभी भी,
बस एक बार कह देना की 'पंडित' गले से लगाए।
अब तो यही दुआ है रब से कि किसी रहगुजर पर
वो मिल जाये तो नज़र न मिलाये।
वफ़ा से तो विश्वास उठ ही चुका है कहीं ऐसा न
की बेवफाई से भी ऐतबार उठ जाये।