एक नज़्म Lakshay Anand
एक नज़्म
Lakshay Anandइक नज़्म तुम्हारी आँखों पर,
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ।
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ,
इक झूठ तुम्हारी आँखों पर।
सहमी-सहमी सी, थकी-थकी,
दोनों पलकों से ढकी-ढकी,
गुस्से वाली, उल्फत वाली,
ये दो आँखें सुरमे वाली,
कभी रिदा-रिदा, कभी दुआ-दुआ,
खुलती, उठती, गिरती पलकों में,
अलग-ढलग अंदाज लिए
दो आँखें ज़रा नशीली-सी,
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ !
मीठी मुस्कानें गालों पर,
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ
झूठी मुस्कानें गालों पर !
कुछ सुर्ख-सुर्ख, कुछ कोमल सा,
एक चेहरा मेरी आँखों में
खाली-खाली पर भरा हुआ,
मासूम गुलाबों के जैसे,
ये गाल शबाबों के जैसे,
जैसे उसने बनवाई हो,
एक जमीन चाँद के गालों पर,
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ ।
इक ग़ज़ल तुम्हारे बालों पर,
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ
कुछ शेर सुनहरे बालों पर !
वो स्याह-स्याह, उलझी-उलझी,
वो बिन कँघी के सुलझी-सुलझी,
वो नरम-नरम, वो महकदार
लम्बी-लम्बी और धारदार
ये ज़जीरों की दुनिया है
और छाव हमारी खातिर है
ये अम्बर जैसे घने-घने,
ये टेढ़े-मेढ़े बालों पर,
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ ।
इन सरगम, इन सुर-तालों पर,
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ
इन टेढ़ी-मेढ़ी चालों पर !
तुम चलती हो बेबाक हवा के
झोंकों की तरह से जब,
तुम चलती हो, सैलाब उमड़ सा
आता है गलियों में तब,
तुम रुकती हो तो हर मौसम
हर वक्त ठहर सा जाता है,
ऐसे मौसम के हालों पर,
ऐसी नटखट सी चालों पर,
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ ।
अपनी उल्फत के ख्वाबों पर,
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ
अपनी चाहत के दावों पर !
वो इश्क जिसे बरसों से मैं
आँखों में डाले बैठा हूँ,
वो इश्क जिसे बरसों से मैं
पलकों में पाले बैठा हूँ,
वो राख-राख, वो धुआँ-धुआँ,
वो हवा-हवा, वो रुआँ-रुआँ,
वो इश्क जिसे साहिल पर मैंने
अश्कों से लिख डाला था,
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ ।
इक बुलबुल के उन्नालों पर,
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ
सूखे पेड़ों की डालों पर !
जब शरद ऋतु के जाते ही
सर्दी का मौसम आता है,
जब फूल, फिज़ा से लड़ते हैं
और पतझड़ सर चढ़ जाता है,
जब सूखे पत्तों में जान
तुम बिखरी-बिखरी दिखती हो
जिनको मैं घर ले आता हूँ,
हाँ...वैसे सूखे पत्तों पर,
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ ।
उन तरह गुज़रे सालों पर,
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ
इन मौसम के जंजालों पर !
बस कट जाते थे गिन-गिनकर,
सब पल, सब लम्हें, उँगली पर,
कुछ ऐसे बीते हैं हमपर
हालात तुम्हारे जाने पर,
ये दोनों आँखें शायद अब भी
रखी हुई हैं राहों में,
कुछ ऐसे गुज़रे हैं हमपर,
लम्हात् तुम्हारे जाने पर,
मैं रोज़ कहीं लिख देता हूँ ।
इक नज़्म तुम्हारी आँखों पर,
इक नज़्म तुम्हारी आँखों पर।