जीवन-राग शुभम त्रिपाठी
जीवन-राग
शुभम त्रिपाठीये निशा कोकिल की भाँति,
प्रगाढ़ इतनी कृष्ण!
हरण करती नीड़ सबका,
क्षितिज अब भी कृष्ण!
दूर अम्बर से आशा की किरणें,
हृदय में लगा अवसाद घिरने!
चीर नभ-उर गिरी बिजलियाँ,
चारों ओर फिर उठी सिसकियाँ!
चित्त-चंचल पर राहु-डेरा!
भय-दास हुआ मन ये मेरा।
समीप अब जो प्रातः नभ,
मुश्किलें भी हैं हतप्रभ।
कुटिल-रात्रि ज्यों पीछे छूटी,
अरुण-केसर नभ में फूटी!
श्याम-पट पर हो मल दी खड़िया,
लगी चहचहाने तरुवर पे चिड़िया।
देखो! आया जीवन में सवेरा,
चारों ओर खुशियों का बसेरा।
सुख का आया तीव्र-रेला,
जो था किंतु अल्प-बेला।
हो उठी फिर साँझ जल्दी,
धुल गई फिर नभ में हल्दी!
भगवाम्बरी में श्वेत धागा!
जीवन जो छिपने को भागा।
तत् आई वो रात्रि-रंजिश!
चित्त-भँवरों पर लगी बन्दिश!
आई रात्रि, कोयले की भाँति
प्रगाढ़, पुनः कृष्ण!
दूर अम्बर में श्वेत आभा,
तृष्णा किन्तु ये तीक्ष्ण!
ये सत्य, कटु-मधु, ही "जीवन-राग" है!
सुख-दुःख का संगम और सम-भाग है!