इसे रंगों में न बाँटो शशांक दुबे
इसे रंगों में न बाँटो
शशांक दुबेफिर परिहास हुआ देखो, इस भारत की माटी में,
गिरगिटों ने रंग बदले, क्या फिर उसी परिपाटी में?
झंडे के रंगों ने क्या फिर, अपनी फ़िज़ा बिगाड़ी है?
या इसके पीछे भी साजिश, अब कोई लगती भारी है?
बाप से ज्यादा पड़ोसी अब, हमको प्यारा दिखता है,
तिरंगे में भी अब हमको, क्या कोई रंग ज्यादा लगता है?
श्वेत रंग बीच में पड़, कब तक उन्मादों को टाले,
चौबीस कड़ियों सा चौबिस घण्टे बस शांति की चिंता पाले।
जिस धरती पर माथा टेका उसका अहसान् चुका देना,
मातरे वतन के खातिर अशफ़ाक सी जान लड़ा देना।
वंदे मातरम् मत कहना, गर मज़हबी नहीं इज़ाज़त है,
पर पड़ोसी की जय-जयकार रिवायत नहीं बगावत है।
इस जात-धर्म के झगडे में अब, मानवता को मत काटो,
तिरंगा एक ही रहने दो, इसे रंगों में तो न बाँटो।