मेरी मंज़िल VIKAS UPAMANYU
मेरी मंज़िल
VIKAS UPAMANYUन अब मेरी कोई मंज़िल नहीं मेरा कोई ठिकाना है,
हूँ मैं अब एकाकी, ऐसे ही बस जीते जाना है।
रूठा है तू ऐसा मुझसे अब तो पत्थर बन जाना है,
एक तेरी यही तकलीफ मेरी वजह बन जाना है।
अब तू मैं हम कभी न होंगे, नदी की तरह बहते जाना है,
एक होकर भी किनारे की तरह बिछड़कर रह जाना है।
अकेले आए थे इस दुनिया में, अकेले ही चले जाना है,
जानता हूँ मैं सब लेकिन फिर भी अनजान बन जाना है।
सहारे तलाश करना अब तो आदत मेरी बन जाना है,
थे कभी हम भी महफ़िल अब गुमनाम हो जाना है।
न अब मेरी कोई मंज़िल नहीं मेरा कोई ठिकाना है,
हूँ मैं अब एकाकी, ऐसे ही बस जीते जाना है।
सन्नाटों का अब ये दौर है इसी में खो जाना है,
चुप-चुप रहता है अब ‘विकास’, इसी में रुखसत हो जाना है।
पता है मुझे एक दिन मेरी ख़ामोशी को भी आवाज़ बन जाना है,
है विश्वास छंटेगी काली घटा एक दिन, ग़मों का मलबा हट जाना है।
छोड़ा था जो पथ कभी, उसी से ही होकर अब मुझको जाना है,
मन विचलित है मेरा, फिर भी मुझको चलते जाना है।
धीरे-धीरे ही सही, अब मुझको सभी के दिलों में ठहर जाना है,
इतिहास बनाना मेरा मकसद नहीं, मुझे तो मर कर भी ज़िंदा रह जाना है।
याद करेगी ये दुनिया, ‘उपमन्यु’ को एक दिन ये वादा रहा हमारा है,
हूँ मैं प्रचंड अग्नि हवन कुण्ड की, इसी में समाहित हो जाना है।
न अब मेरी कोई मंज़िल नहीं मेरा कोई ठिकाना है,
हूँ मैं अब एकाकी, ऐसे ही बस जीते जाना है।