आधे मोल ही बिक जाऊँगा Ravindra Kumar Soni
आधे मोल ही बिक जाऊँगा
Ravindra Kumar Soniमुझे ना प्रेम प्रतिज्ञा देना,
ना बाँधो घृणा जंजीरो से,
मैं प्रेम के दीप जलाने वाला,
ना मारो नफरत के तीरों से।
मोल मेरा कैसे अर्पित हो,
अहंकारों के बीजों से,
मुस्कुरा भर दो नयन से तुम,
मन प्रतिबिंब सा खिल जाऊँगा,
आधे मोल ही बिक जाऊँगा।
जब धन दौलत देख रहे हो,
कैसे प्रेम पहचानोगे?
मेरे हृदय गीतों में तुम हो,
कैसे प्रिये तुम जानोगे?
मैं प्यार की खेती करने वाला,
नफरत रोपण ना कर पाऊँगा,
तुम एक टूक होकर देखो,
सहृदय दिख जाऊँगा,
आधे मोल ही बिक जाऊँगा।
शब्दों से व्यापार हैं होते,
व्यापार में मौन रहता हूँ,
तुम समझो मनोभाव मेरे,
मैं तुमसे कुछ कहता हूँ।
मैं मेहंदी का सौदागर
बारूद कहाँ से लाऊँगा,
सदा प्रेम चाहने वाला,
हर पल तुमको पाऊँगा,
आधे मोल ही बिक जाऊँगा।