संतोष DEVENDRA PRATAP VERMA
संतोष
DEVENDRA PRATAP VERMAअसफलताओं का क्रम
साहस को अधमरा कर चुका है,
निराशा की बेड़ियाँ कदमों मे हैं,
धैर्य का जुगनू लौ विहीन होता,
अँधेरों के सम्मुख घुटने टेक रहा है
और उम्मीदों का सूर्य, विश्वास के
क्षितिज पर अस्त होने को है।
जो कुछ भी शेष बचा है,
वह अवशेष यक्ष प्रश्न सा है।
क्या अथक परिश्रम और उससे उपजे
स्वेद कणों की पातों में इसी की चाह थी!
या फिर जहाँ चाह वहाँ राह महज़ एक अफवाह थी।
यदि नहीं! तो निज सामर्थ्य को समझने मे भूल क्यों?
सफलता की राह मे विफलता के शूल क्यों?
चित्त इन सीधे प्रश्नों के उत्तर ढूँढता,
शून्य की गहराइयों मे उतर गया
और अंधकार का साम्राज्य,
सूखे पत्तों की भाँति बिखर गया।
सफलता की कामना ही
विफलता के भाव को जन्म देती है।
स्वतः उत्पन्न हो जाता है भय
और भय की विषाक्त वायु निर्भय
आत्म विश्वास के प्राण हर लेती है।
तो क्या सफलता इसी भाँति
विफलता का आहार बनेगी?
सुखों की चाह दुःख की डगर चुनेगी,
या कहीं कोई पवित्र प्रतिबंध है,
विफलताओं और दुखों का स्थायी अंत है।
हाँ ! देखिये क्या अजीब दृश्य है,
जिसकी कामना है वह दूर है,
जिसकी चाह नहीं भरपूर है,
यही मूलमंत्र है
सफलता और सुख की
आसक्ति का परित्याग
विफलता और दुख के
भाव और भय का अंत है।
किन्तु कैसे ! अन्तर्मन यह रहस्य
समझ नहीं पाता है,
गौर से सुनो! स्वयं मे निहित
आनंद की बांसुरी की मीठी तान
जिस पर ‘संतोष’ झूमता है, गाता है।
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लक्ष्य को भूल कर रात दिन सफलता का चिंतन, सफलता के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध है। एकाग्रता लक्ष्य के प्रति होनी चाहिए न कि सफलता के प्रति। सफलता तो परिणाम है और कर्म के अनुरूप निश्चित ही है। पूरी ईमानदारी से कर्म करते रहना चाहिए और परिणाम जो भी हो निराश नहीं होना चाहिए। निराशा दुःख का कारण है। संतोष ही सुख है, आनंद है।