मैं और मेरी कलम  Vimal Kant Pandey

मैं और मेरी कलम

Vimal Kant Pandey

यूँ तो बहुत
अठखेलियाँ करते थे शब्द
और ये कलम,
ये तो बड़ी वाचाल थी।
 

जाने क्या हुआ है इन्हें ?
शब्द गुमसुम,
कलम पड़ी बेजान है।
 

कितना भी इनको गुदगुदाता हूँ,
कितना भी इनको समझाता हूँ,
कहता हूँ इस वाचाल से, उठ
शब्दों को थोड़ा खुद में घोल,
ज्यादा नहीं, तो थोड़ा ही बोल।
 

एक नहीं सुनती मेरी
चीखता हूँ जब
अरे उठ जा
आज बड़ा दिन है,
तेरी मीठी-मीठी बातों का
जो विधाता है
देख तुझे वो बुलाता है,
जन्म दिवस है उसका
उपहार क्या देगी ?
माना की है दूर
तो क्या आँसुओं से भीगा
कोरा कागज़ ही थमा देगी ?
 

सुनकर इतना उठती है
दो चार कदम,
डगमग-डगमग फिर चलती है,
निराश, हताश होकर
फिर बैठ जाती है।
 

नम आँखों से
यूँ देखती है
बिन बोले,
बहुत कुछ कहती है,
थक गई है शायद,
थके भी तो क्यों ना,
आख़िर मेरी हर पीड़ा
का बोझ ये ही तो सहती है।
खुशी हो या ग़म
जब साथ नहीं कोई
हर मोड़ पर
साथ यही तो रहती है।

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