समर्पण Ravi Panwar
समर्पण
Ravi Panwarये वही स्वपन हैं प्रिये
जब हम दो से एक हुए,
वही मेरी साड़ी का छोर
और तुम्हारे हाथ पर बंधा रुमाल,
हमारे परिणय पर उठ चुके थे कितने सवाल,
कितनी प्रसन्न थी मैं
तुमसे मिलने को,
सुनने को बेसब्र, वो शब्दों की माया,
सुभानअल्लाह ये घूंघट में चाँद कहाँ से आया।
तुम मौन थे,
किन्तु तुम्हारी आँखें बोल रही थी,
जीवन की तुला में
मैं अपने भाग्य को तौल रही थी,
प्यार नहीं था, किन्तु धन्यवाद,
तुमने मुझे माँ बनने का गौरव तो दिया,
अब ज़िन्दगी बोझ नहीं लगती,
कितने साल हो गए, तुम यहाँ मैं यहाँ।
दिवाली के दीप, होली का गुलाल,
तीज पर झूले बाँध, इंतज़ार करता वो करवाचौथ का चाँद,
सब आते हैं मुझसे मिलने
पर तुम क्यों नहीं आते,
और अब आए हो, तो क्यों लाए हो
मेरे लिए वो निरर्थक शब्द
जिसे तलाक कहते हैं,
मैं रह गयी थी सिमटकर,
मेरी बेटी भी रोई थी मुझसे लिपटकर,
माँ क्यों ये रिश्ता हमारे खिलाफ हो गया,
मेरे पिता का मुझसे तलाक़ हो गया।
फिर एक औरत अपमान सह रही थी,
जाते-जाते उनसे कह रही थी,
छलका जो आँसू उसे मोती बना लूँगी,
आई जो अमावस तो दिवाली मना लूँगी,
राह में मिल गया अगर कहीं,
तो तुमसे नज़रें चुरा लूँगी।
कुछ रिश्तो में अल्फ़ाज़ नहीं होते,
हालातो में अक्सर जज़्बात नहीं होते,
समाज से पूछता हैं जब रवि,
तो कुछ सवालो के जवाब नहीं होते।