घर की चिट्ठी  Aditya Porwal

घर की चिट्ठी

Aditya Porwal

मोहल्ले की गलियाँ कितनी सूनी हैं
जहाँ तुमने बचपन में गिरकर उठना सीखा,
जहाँ तुम्हारी खेलने की आवाज़ सुनके मैं खुश हो जाती थी
वह आज भी तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं,
क्या तुम्हें वहाँ पर मिलता है ऐसा कुछ?
 

याद तो तुम्हे आँगन की पत्तियाँ भी करती हैं,
जब तुम स्कूल से थक के लेट जाते थे उन पर
और वह तुम्हारी थकान यूँ ही बस मिटा देती थीं।
गिरती हैं आज भी वह आँगन में, बस तुम नहीं हो।
 

तुम्हे खेत की बालियाँ तो याद ही होंगी
वहीं तो छुप-छुप के मिला करते थे उससे,
लहरा उठती थी वह तुम्हारी अठखेलियाँ देखकर,
छुपा लेती थी तुम्हे सारे ज़माने की नज़रों से,
याद तो तुम भी करते ही होंगे उसे।
 

याद है जब तुम कभी विचलित होते थे
बैठ जाया करते थे हम इस खाट पर,
और देखा करते थे बस इस चाँद को,
कर देता था वह सारी चिंता दूर
करता है वह आज भी याद तुम्हें।
 

पर पता है सबसे ज़्यादा कौन याद करता है तुम्हें,
वह नदी जहाँ तुम जाते थे मस्ती करने,
उस दिन वह भी रोई थी जब तुम रोए थे उसके साथ,
बापू के गुज़र जाने का गम तुमने वहीं मिटाया था,
वो नदी आज भी वहीं राह देख रही है
कि तुम आओ और फिर से वह तुम्हारे सारे दुःख ले ले।
 

नहीं मिलता होगा ना ये सब तुम्हे वहाँ
गाँव से शहर जो जा चुके तुम,
बस एक बात मान लेना मेरी
कि जब मेरे मरने पर यहाँ आना पड़े
इन सब से ज़रूर मिल जाना
बहुत याद करते हैं तुम्हें।

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